Kapil Sharma   (नुक़्ता)
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Joined 31 December 2019


Joined 31 December 2019
26 SEP AT 12:54

we fell apart,
unsaid was love
betwixt you and me
unsaid remained
the good bye and
just a pang
remained in
the forlorn heart

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26 SEP AT 12:26

ये खौफ़,
की कहीं खो
ना जाए, ये महीन
नाज़ुक ख्याल सुनहरे
मैं रहने देता हूँ चढे खिड़की पर
ये चिलमन गाढ़े, गर्द से भरे पहरे

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26 SEP AT 11:26

शायद कुछ तो ख़लिश सी
चुभती होगी दिल मे जो
सलाम में, नज़रें झुकाती थी
वही नजरें अब चुराती हो

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25 SEP AT 13:11

पतझड़ में
छितरे पत्ते जैसा
प्रेमानुग्रह

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24 SEP AT 22:39

उफ़ है ये कैसी कसैली शाम, ऐ साक़ी
किस का आ गया याद नाम, ऐ साक़ी

कर ले यक़ीन मेरे मुस्कुराते लबों पर
मत पूछ तू मेरे हाल-ए-तमाम, ऐ साक़ी

क्यूँ चाँद ढलते ही है साया तीरगी
क्यूँ टूटता है ख्वाब का निज़ाम, ऐ साक़ी

लब पर दबी हैं चीख़, दिल पर बोझ है
दे दे कोई तू पुर सुकून जाम, ऐ साक़ी

रख दे न आँखों में वो सहरा-ए-ख़लिश
बरसा दे थोड़ी बारिश-ए-आराम, ऐ साक़ी

कहता है "नुक़्ता" फिर उसी दर से गुज़र
फिर से तू हीं है राह और मक़ाम, ऐ साक़ी

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21 SEP AT 21:29

तूफान की बीच पा लिया है साहिल जैसे
तू मिला है मेरी हर दुआ का हासिल जैसे

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21 SEP AT 14:10

love isn’t a photograph
it isn’t a word scrawled on napkins
it’s the dishes you wash at 2 a.m.
when the other one is coughing in bed

it’s the rent you pay together
the small fight about toothpaste caps
the apology muttered like a cigarette flicked
into an alley no one cares about

love is ugly shoes at the grocery store
and still holding the hand inside them
it’s waking up, hungover,
and not walking out the door.

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18 SEP AT 13:26

निखरती तुम्हारे सुर्ख़ नूर से, सजती है ये साड़ी
सच कहता हूँ बहुत तुम पर, जानाँ, फबती है ये साड़ी

ये उड़ता आँचल चंचल, तिस पर तुम्हारी देह है संदल
इस पागल को जैसे कोई सुंदर जंगल, लगती है ये साड़ी

झूठे लबों से बारहा अलविदा कहा करती हो तुम
घड़ी की हुक में अटककर सब सच कहती है ये साड़ी

तुम्हारे कदम को चूमे ज़मीन, तो महक उठती हैं राहें
तुम्हारी चाल के साथ ही थम-थम चलती है ये साड़ी

तुम्हारी निगाहों की सुनहरी गर्मी, या चाँद सी ये सर्द आहें
हरेक रंग में नई सी ढलकर नयी कहानी बुनती है ये साड़ी

‘नुक़्ता’ तुम्हारे हुस्न की ताबीर में लिखे जो भी अशआर
उन सब पर जैसे मुहर ए मोहब्बत सी छपती है ये साड़ी

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17 SEP AT 14:34

जानकर गहराई भी, क्या अलग, ए यार होगा,
आग का दरिया हैं, बिन डूबे, कैसे पार होगा?

इस दम सुस्ता ले, सहला ले आबले पा जरा,
आगे भी दामां ए राह खूब पुर ख्वार होगा।

कुछ तो मुक़म्मल हासिल है ख़ाक हो जाने में,
यूँ तो नहीं जल जाने को पतिंगा तैयार होगा।

रात के सन्नाटे में ये जो हसरत पल रही है,
दिल ए सबा के कोने में गुमनाम इकरार होगा।

चुप रहना ही बेहतर है कभी-कभी, नुक़्ता
लफ्ज़ में बुनकर बस तश्नगी का इज़हार होगा।

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15 SEP AT 21:46

If today, I die of thirst, O Saaqi
You'd be blamed first, O Saaqi!

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