मैं 'मैं' नहीं हूँ 'वह' हूँ...
मैंने पाया है कि जीवन के बहुल क्षणों में,
मैं 'वह' हो जाता हूँ।
वह का 'वहत्व' भी स्थायी नहीं है,
वह परिवर्तित होता रहता है बाहरी सन्दर्भो में।
मैं को 'मैं' का 'वह' होना कभी कभी कचोटता है;
पर 'मैं' से ज्यादा बेहतर बाहरी सन्दर्भों को 'वह' सम्भालता है।
पर सोचता हूँ कि
मैं 'मैं' कब होता हूँ?
मैं सिर्फ 'वह' के अलग अलग रूपों का
समुच्चय मात्र हूँ या मैं में कुछ 'मेरापन' भी है?
मैं अपने बाहर 'मैं' को नहीं सिर्फ 'वह' को पाता हूँ,
'मैं' को सिर्फ मैं अपने अंतस में ही खोज पाता हूँ,
और महसूस करता हूँ कि
'वह' कितने भी रूप बदले पर 'मैं' से स्वतंत्र नहीं हो पाता
'मैं' कुछ न कुछ मात्रा में 'वह' में झलक ही जाता हूँ।
न 'मैं' पूर्ण हूं न 'वह' पूर्ण है
मैं इस समन्वय में ही स्वयं को पूर्ण मानता हूँ।
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