KANIK KUMAR SINGH   (Alfaaz Dill se)
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Joined 16 September 2018


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8 MAR 2022 AT 8:29

दोस्त रूपी जीवन साथी मैंने पाया
फिर क्यों जुबाँ पर शब्द अटक आया।
भाई रूपी देवर मैंने पाया
फिर क्यों मन भर आया।
बहन रूपी ननद मैंने पाई।
फिर क्यों मन उदास हो आया।
माता पिता रूपी सास ससुर मैंने पाए
फिर क्यों पैर डगमगाया।

किसी ने तो मन को
बिना बोले पढ़ा होता।
उछलते सवालों के बीच
कोई तो जवाब बनकर आया होता।
मन की चाहतों को
अपना ख्वाब बनाया होता।
किसी ने तो समझने की जगह
इस तरह समझा होता।— % &

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8 FEB 2022 AT 14:28

कुछ दिनों का नहीं,
जनमो जनम वाला प्यार है।
आंसू देने वाला नहीं
आंसू पोछने वाला प्यार है।

दुपट्टा हटाने वाला नहीं,
दुपट्टा पहनाने वाला प्यार है।
हाथ उठाने वाला नहीं
हाथ बढ़ाने वाला प्यार है।

ज़रूरत वाला नहीं,
ज़रूरी वाला प्यार है।
साथ बैठाने वाला नहीं,
साथ चलाने वाला प्यार है।

हाँ, मुझे तुमसे
बहुत सारा प्यार है।— % &

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11 MAY 2021 AT 8:32

रहता था जो आम
वो खास हो रहा है।
चंद लोगों की खातिर
बदनाम हो रहा है।
कहीं दवाई तो कहीं सासों का
कारोबार हो रहा है।
चंद पैसों के लिए कुछ लोगों का
ईमान नीलाम हो रहा है।
तू मत कर चिन्ता
समय बलवान हो रहा हैं।
समय भी तुझसे
कुछ बोल रहा है।
मत ले मेरी परीक्षा
मेरा भी गुस्सा आम हो रहा है।
ऊपरवाला ऊपर सबका
हिसाब कर रहा है।
सिस्टम का ये कैसा
प्रदर्शन हो रहा है।
आंसूओं का रखवाला ही
आंसुओं का कारण हो रहा है।

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21 APR 2021 AT 18:22

साँसों के लिए दौड़ना न होता
मास्क पर अगर ध्यान दिया होता।
सामाजिक दूरी का नाम न होता
अगर हमने खुद को संभाला होता।
हाथ धोने का नाम लिया होता
तो चिक पुकार का दौर न होता।
पाबंदियों का नाम न होता
अगर खुद को थोड़ा पाबंद किया होता।
जश्नों पर विराम न लगा होता
कदमों को अगर सही दिशा चलाया होता।
शिक्षा का मंदिर शांत न होता
अगर हमने थोड़ा सोचा होता।
इलाज के लिए लड़ना न होता
थोड़ा अगर कानो को खोला होता।
विनाश का मंजर न होता
अगर विकास का यू नाम न लिया होता।
अंधा पैसा ना लगा होता।
स्वास्थ्य पर अगर ध्यान दिया होता।

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27 DEC 2020 AT 12:14

सोचा ना था
ये साल कुछ ऐसा जाएगा।
हँसती खेलती ज़िन्दगी में
डर का एहसास करवाएगा।
चलता था जो काम बाहर जाने से
वो एक कमरे तक सिमट जाएगा।
उम्मीदों की दुनिया को
यूं डगमग कर जाएगा।
दे ना सके जिन अपनों को समय
उनको समय दिलवा जाएगा।
भूलते रिश्तों को
याद करवा जाएगा।
जश्न ए त्योहारों को
यूं फीका कर जाएगा।
महफ़िल के रंग को
यूं बेरंग कर जाएगा।
भूल चुके थे जिन वीरो को
उनको याद करवाएगा।
कुदरत अपनी सुन्दरता को
ऐसे वापस लाएगा।

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4 DEC 2020 AT 13:08

डाल कर हमारे मन में शंका
अपना काम कैसे बना पाओगे।
मानोगे ना बात मेरी
तो अपनी बात कहाँ से मानवाओगे ।
लहराते खेतो में
पसीने की महक कहाँ से लाओगे।
होगी ना खेती
तो अन्न कहाँ से लाओगे।
भूल कर अपनी भूख
देश निर्माण कैसे कर पाओगे।
तोड़ कर मेरी मंज़िल
अपनी मंज़िल कैसे जा पाओगे।
डाल कर मुझे अंधकार में
अपना भविष्य कैसे बना पाओगे।

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12 NOV 2020 AT 13:43

महकती साँसों को
यूं दुर्गन्ध में न रहना पड़ता।
चमकती आँखों को
यूं धुलमिल न होना पड़ता।
कर लिया होता अगर जश्न छोटा
यूं गाला ना बोला होता।
कर लिया होता वाहन बंद समय पर
यूं कैद ना करना पड़ता।
रोक लिए होते हाथ जालती चीजो से
यूं जीवन बचाना ना पड़ता।


काश! अंधी दौड़ में
थोड़ा वन बचा लिया होता।
काश! शौक छोड़
ज़रूरत पर ध्यान दिया होता।
काश! चीज़ों को पहले से
व्यवस्थित कर लिया होता।
काश! घृणा छोड़
सहयोग का हाथ बढ़ाया होता।
काश! सोच बड़ी कर
त्योहारों को बचाया होता।
काश! ऐश- ओ- आराम छोड़
जीवन का सोचा होता।

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5 SEP 2020 AT 12:49

इन निगाहों को भी कोई
अपना सा लगने लगा है।
रहते थे जिसमे आंसू
उन आंसूओं को कोई चुराने लगा है।
सूनी सी इन हथेलियों को
कोई थामने लगा है।
देखे थे जो सपने
उनको कोई अपना बनाने लगा है।
हमें भी कोई
अपना सा लगने लगा है।
अपना सा लगने लगा है।

निगाहों से उतर कर
दिल में कोई बसने लगा है।
रातों की उन नींदो में कोई
समाने लगा है।
किरायदार से रिश्तों में
कोई अपना घर बनाने लगा है।
हमें भी कोई
अपना सा लगने लगा है।
अपना सा लगने लगा है।

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15 AUG 2020 AT 6:55

खिलते चेहरों का वास होगा।
हमारे भी जीवन में
आराम का नाम होगा।
आराम ना सही
शांति का आभास होगा।
शांति का आभास ना सही
दो पल परिवार का साथ तो होगा।
जीवन के उन पलों में
कुछ संघर्ष मेरा भी तो होगा।
भरे हुए कपड़ों से
कभी तो मेरा भार कम होगा।
दूर इन सभी डर से
कभी तो मेरा समय मेरा होगा।
करते रहे हम इतना काम
क्या आगे भी इतना ही होगा।
मिला जो सम्मान मुझे
क्या आगे भी वैसा ही होगा।
इस मेहनत काल का फल
कभी तो मेरे पास भी होगा।
कभी तो वो हसीन जीवन
फिर मेरे साथ होगा।

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26 JUL 2020 AT 14:24

यूं तो मेरा कोई रंग नहीं
अब क्यों अपने आसू मिला रहे हो।
अपने आंसुओ का दोष
सिर्फ मुझ पर क्यों लगा रहे हो।
उजाड़ते सपनों में
सिर्फ मेरा नाम क्यों लगा रहे हो।
रोकना था मुझे जिन राहों से
वहां तुम कुछ और बनाए जा रहे हो।
अब जब बना लिया मैंने अपना रास्ता
तब क्यों एक दूसरे की और देख रहे हो।
था मैं जिनके लिए वरदान
क्यों उनकी नज़रों में बुरा बना रहे हो।
था जिस व्यवस्था पर भरोसा
अब क्यों भरोसे का हाथ छोड़ रहे हो।
थी मंजूरी तुम्हारी भी इन सब में
अब क्यों मुंह मोड़ रहे हो।
करा था सब कुछ तुमने
मुझे क्यों खलनायक बना रहे हो।
अपने काम के लिए
मेरा घर क्यों घटा रहे हो।

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