✒मैं हार कैसे मान लूँ✒
घर छोड़ जब निकला था मैं,कुछ कर गुज़रने की चाह में,
मन में मेरे,बात मैंने एक थी तब ठान ली,
कि पानी है मंज़िल,फिर क्यूँ ना जाएँ अब चाहे जान ही
तब कह रहे हो रुख़ मैं अपना,मंज़िल से मोड़ लूँ
है कठिन डगर इतनी,कि प्रयत्न करना छोड़ दूँ
जब मैं अकेला बेसहारा,भटकता था दर बदर,
तब रेंग कर चलता था मैं,मंज़िल की तलाश में,
ना कोई था जब साथ में,थी केवल उम्मीद मेरे पास में
तब कह रहे हो कुछ नहीं होगा यूँ हासिल
तू बीता हुआ कल भूल जा सब मंज़िलें नहीं मिलती यहाँ,
तू लक्ष्य अपना भूल जा
ये बात कैसे मान लूँ,मैं हार कैसे मान लूँ
आँसुओं का मोल मैंने था तब जान लिया,इन्ही आँसुओं को मोती बनाऊँ,
था मन में यह बस ठान लिया
तब कह रहे हो,इच्छाऐं अपनी सब दफ़्न कर दूं कफ़न में
मूँद लूँ आँखें मैं अपनी,और सपने बुनना छोड़ दूँ
जब खोजता था, अस्तित्व अपना,मैं हाथों की लकीरों में,
और ढूँढता था सच झूठ,मैं गीता क़ुरान पुराणों में
तब कह रहे हो,तक़दीर से तू अपनी लड़ना छोड़ दे
डर,मुक़द्दर से और स्वाभिमान पे अपने अड़ना छोड़ दे
घर बार, नाते और जीवन,जब सब लगाया दांव पर
फिर इश्क़ अपने इस ख्वाब से,कैसे मैं करना छोड़ दूँ
खुद से किया वादा,कैसे उसे मैं तोड़ दूँ
मैं हार कैसे मान लूँ
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