कोई कमाने तो कोई मिलने निकला था ,
कोई घर के लिए तो कोई घर से निकला था ,
किसी को क्या पता कब मौत आ जाये ,
कोन भला घर से मरने निकला था ll-
जो खुशी तुम्हे लिखने मे है वो जमाने मे कहाँ ||
मैं जनाजे में लेटा उठ गया ,
जब वो किसी और के कंधे पे सर रख कर रोई।।
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किसी का घर उजाड़ के हमने उसे विकास कह दिया,
वो बेज़ुबान थे, इसलिए उन्होंने ये सबकुछ सह लिया।
और पता चलेगा तुम्हें इन जंगलों की अहमियत का,
कि बस थोड़ा सा पाने के लिए हमने बहुत कुछ खो दिया।
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मैं कमल हु महकूंगा सब्र कर ,
अभी कीचड़ में हु निकलूंगा सब्र कर ,
मुझे लगने दे किसी वफ़ादार के हाथ,
मैं मोहब्बत भी लिखूंगा सब्र कर ll-
मेरी हर होली में एक रंग मेरे गांव का होता है ,
बस यूं मानो ये सफ़र धुप से छांव का होता है,
शहरों में तो होते है रिश्ते स्वार्थ और पैसों के ,
गांव का तो रिश्ता ही निस्वार्थ लगाव का होता है ll-
इस होली तेरे रंग में कुछ यूं घुल जाऊ मैं,
कोई अलग ना कर पाए तेरे रंग को मेरे रंग से ll
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तू रोएगा उस दिन जब हिज़्र की रात आयेगी ,
ना होगी कोई छत तेरे पास और बरसात आएगी,
और मोहब्बत हैं तो मौत भी अच्छी लगेगी तुझे ,
जब मेरे घर किसी और की बारात आएगी ll-
"इंसानियत की पुकार"
दरिंदगी का ये काला साया कब तक यूँ ही छाएगा?
कब तक एक मासूम परिवार यूँ ही चीखता रह जाएगा?
"कब तक सोओगे, कब तक रोओगे?"
अपनी बारी का इंतज़ार करते-करते,
और क्या-क्या खोओगे?
बस करो! अब इन दरिंदों को मरना होगा,
और ऐसा सोचने से पहले इनकी रूह भी काँप जाए।
बस, अब ऐसा ही कुछ करना होगा!-
"इंसानियत की पुकार"
हर इंसान, इंसानियत से रूठता जा रहा है,
मानवता का रोशन दिया बुझता जा रहा है।
एक ज़माना था जब पड़ोसी भी माँ-बाप जैसे थे,
और आज हर रिश्ता एक हैवान बनता जा रहा है।
भरोसे की दीवारें एक-एक कर बिखर रही हैं,
और हर एक इंसान दरिंदा बनता जा रहा है।
जिस बच्ची के नाख़ून तक नहीं आए,
उसका भी जिस्म नोचा जा रहा है।
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तू रोएगी उस दिन जब हिज़्र की रात आयेगी ,
ना होगी कोई छत तेरे पास और बरसात आएगी,
और मोहब्बत हैं तो मौत भी अच्छी लगेगी तुझे ,
जब मेरी किसी और के घर बारात जाएगी ll
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