KAMAL KANT VERMA   (#कमलकीकलम)
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From- Raipur (Chhattisgarh)
Joined 15 May 2019


From- Raipur (Chhattisgarh)
Joined 15 May 2019
28 MAY 2021 AT 20:42

ज़िम्मेदारी के फूल थोड़ी जल्दी खिल जाते है कुछ शाखाओं में

वक़्त से पहले ही लंबे सफर का बोझ है लड़खड़ाते नन्हें पाँव में

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19 FEB 2021 AT 22:37

लफ्ज़ो की जरूरत नहीं आंखे सबकुछ कहती है
बिखरे हुए उम्मीदों में भी चाहत ज़िंदा रहती है

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19 JUL 2020 AT 0:55

ज़िन्दगी में क्या जीत है क्या हार है
एक ख़्वाहिश पूरी तो दूसरी तैयार है

कोई सब कुछ पाकर भी बेचैन सा है
कोई सूखी रोटी से ही खुश हर बार है

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26 MAY 2020 AT 17:18

तू मुसाफ़िर है रात का फिर क्यों सवेरा चाहता है
कर बेवफ़ाई जमीन से आसमाँ में बसेरा चाहता है

हर एक नज़रों का अलग नज़रिया होता है जमाने में
जरूरी नहीं वो भी तुझे चाहे जिसे मन तेरा चाहता है

शिकायत है तुझे अगर उसकी यादों के उलझनों से
फिर क्यों हर वक़्त उसकी चौखट पर डेरा चाहता है

देख बारिश की बूंदे भीग जाती है अक्सर आँखें तेरी
फिर भी न जाने क्यों काले बादलों का घेरा चाहता है

तू मुसाफ़िर है रात का फिर क्यों सवेरा चाहता है
कर बेवफ़ाई जमीन से आसमाँ में बसेरा चाहता है

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24 MAY 2020 AT 12:49

तुम सिर्फ एक शब्द हो उनके लिए
जो तुम्हारे लिए एक पूरी कहानी है

तुम कहते हो आँसू है तुम्हारे आंखों में
उनके लिए सिर्फ बहता हुआ पानी है

समेटने का वक़्त नहीं मिला उनको ही
जिनके लिए बिखेर दी पूरी ज़िंदगानी है

उनके ही नज़रो में क्यों लाचार हो तुम
जो तुम्हारे नज़रो में अभी खानदानी है

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19 MAY 2020 AT 9:12


झूठ के सहारे मिली कुछ पल की अच्छाई
खत्म कर देती है जीवन भर की सच्चाई

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18 MAY 2020 AT 20:36

अपने ख़्वाबों के सफर को इतना क़ीमती बना दो की
कोई भी रुकावट कोई भी तकलीफ उसे खरीद न सके

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15 MAY 2020 AT 10:20

मन का बादल बेचैन है आँखों से बरसात होने दो
घबराते हो अगर उजाले में तो थोड़ी रात होने दो

क्यों सोचना की कोई क्या सोचता है तुम्हारे लिए
अच्छा है गैरों की महफ़िलो में अपनी बात होने दो

दिख जाए अगर कभी मत छुपाना तुम अपना दर्द
ज़ख्म देने वाले से तुम ज़ख्म का मुलाकात होने दो

मत सोचो कभी बुरा अपनी ज़िन्दगी के बारे में तुम
मत झुकना कभी चाहे जितने बुरे हालात होने दो

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14 MAY 2020 AT 13:15


अब टूटने पर भी आवाज नहीं आती
इस तरह तो बिखर गई है ख़्वाहिशें

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11 MAY 2020 AT 22:42

गुजर जाती है ज़िन्दगी रूठे रिश्तों को मनाने में
कमी कहाँ रह जाती है एक घर को घर बनाने में

गुजर जाती है पूरी ज़िन्दगी दौलत ही कमाने में
कमी कहाँ रह जाती है एक घर को घर बनाने में

आज कल दिखावा अपनापन बन गया जमाने में
कमी कहाँ रह जाती है एक घर को घर बनाने में

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