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चल उठ बैठ क्षितिज के दिव्यपथी
उज्ज्वल कर दे इस तम पथ को
घनघोर अंधेरी रातों में इस दीपक से न काम चला
मन में ले दृढ़ संकल्प तू चलने को जब उद्यत होगा
इस जीर्ण शीर्ण आर्यवृत का नव निर्माण तभी शुरू होगा।
हर राह अंधेरी होगी पर, तुझको चलते जाना हैं
एक नए क्षितिज लोकार्पण को तुझे आगे बढ़ते जाना हैं।
न खुद को तू निःशस्त्र समझ, तुझसा कोई वीर कहा होगा
चल पड़ा अकेला जनहित को ऐसा कोई वीर कहा होगा।
जब तेरे हाथों इस तम का चक्रव्यूह भंजन होगा
इस जीर्ण शीर्ण आर्यावृत का नव निर्माण तभी शुरू होगा।
हर नई राह पर तुझे नए शूलों से भेदा जाएगा
पग पग पर नए षड्यंत्रो से,हाँ, तुझको घेरा जाएगा
खुद के सालो की फ़िक्र न कर
तुझे औरों के मलहम बनना हैं
हो पैर भले ही लहूलुहान, पर आगे तुझको बढ़ना हैं।
कुटिल षड्यंत्रो के विरूद्ध जब भी तेरा स्वर प्रखर होगा।
इससे जीर्ण शीर्ण आर्यावृत का नव निर्माण तभी शुरू होगा।
कितना स्वर्णिम क्षण होगा वो जब तू मंज़िल पा जाएगा
नई कांति से उज्जवल होगा देश मेरा खुद को भी पहचान नहीं पायेगा।
झूमेगा भारतवर्ष नया, चहुं दिशि होगी बस खुशहाली
होगी सब आंखों में खुशियां, और सबके चेहरे पर लाली
तब ऐसे कोटिश नयनों का तू अंजन होगा
इस जीर्ण शीर्ण आर्यावृत का नव निर्माण तभी शुरू होगा।
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होती है आस पास पर मेरे साथ नहीं चलती
ज़िन्दगी अब मेरे हिसाब से नही चलती..
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ज़िन्दगी के इस मोड़ तक तेरा साथ निभाने में
खो गयी है एक उम्र रुठे ख़्वाब मनाने में
के राह देखती है ये आँखें रोज़ अंधेरा होने तलक
और कितनी देर लगेगी तुझे लौट कर घर आने में
पलक झपकती भी नहीं और रात गुजर जाती है
नींद अब रूठी सी बैठी रहती है सिरहाने में
मशरूफियत के बहाने यूँ तो अब भी हज़ार है,फिर भी
कुछ वक्त गुजरता है अब भी पुराने ज़ख्मो को सहलाने में
वो कहते है आइये,बैठिये,कुछ गुफ़्तगू हमसे भी कीजिए
करके बंद दिलों के दरवाजे, बुलाते हैं अपने आशियाने में
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इंसान आते रहें, इंसान जाते रहें
कोई उसका होकर रुका नहीं
यही शायद सबसे बड़ी विडंबना थी
वो संवेदना की लौ यूहीं कहाँ बुझने वाली थी
निष्ठुरता की ओस बूंद बूंद कर
उसपर टपकती रही
क्या करती बेचारी
पत्थर नहीं है , ज़िंदा लाश नहीं बनी
बस बर्फ कर लिया है उसने अपने आप को
छूकर देखो, वो इंतज़ार कर रही है
शायद उस छुअन का,
जो उस बर्फ को पिघलने पर मजबूर कर सके
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तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला कर
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला कर
हीन मूल की ओर देख जगत गलत कहे या ठीक
वीर खींच कर ही रहते है इतिहासों में लीक
~श्री रामधारी जी 'दिनकर'
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घने छायादार पेडों के झुरमुटों के बीच
आने जाने वालों के रास्ते से थोड़ा इतर
एक बेंच है पार्क के एक कोने में
मैं कभी कभी जाया करता हूँ वहाँ
मैली सी एक पुरानी बेंच के जिसका
असली रंग अब कुछ मालूम नहीं पड़ता
मानो सदियों से सुनसान चुपचाप
सब कुछ सुनते हुए, देखते हुए
मेरी और उसकी ख़ामोशी को साझा करने
मैं कभी कभी जाया करता हूँ वहाँ
बेंच पर जमी हुई धूल पर मेरी उंगली से
लिखे हुए कुछ शब्द और कुछ बेडौल आकृतियां
इसी तरह से शब्द बिखरे है उस पूरी बेंच पर
हर्फ़ दर हर्फ़ ,धूल की परतों में दबे
उन खामोश मगर ज़िंदा लफ़्ज़ों की कहानियां साझा करने
मैं कभी कभी जाया करता हूँ वहाँ
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छोटी छोटी ख़्वाहिशें थी
अरमान भी ज़्यादा ना थे
फैलाये पंख तो दरख़्त छोटे पड़ गए
इतनी ऊंची ये परवाज़ होगी
कौन जानता था...-
एक ही पौधा एक ही डाली
एक बाग़ और एक ही माली
दो फूल टूट कर बिछड़ेंगे
यूँ होगा ये कौन जानता था।
एक मोड़ पर थाम कर हाथ मेरा
चल पड़ा वो हमराह, वो हमसफर मेरा
एक राह पर भी चल कर
मंज़िले होंगी यूँ अलग
कौन जानता था।
नासमझ थे ,नादान थे
जैसे तैसे सब से निभा लेते थे
बड़े हुए समझदार हुए
अब निबाह में यूँ मुश्किल होगी
कौन जानता था।
देखे है बहुत जज़्बातों के
सैलाब-ओ -समंदर यहाँ
अश्क़ों में यूँ बहा कि सब
सूख कर सहरा हो जाएगा
कौन जानता था।-