वक़्त से थोड़ा वक़्त और माँग लाते हैं,
चलो यादों के संदूक में थोड़ा झाँक आते हैं।
गुड्डे-गुड़िये का आज फिर से ब्याह रचाते हैं,
पुराने माँझे में एक नयी पतंग उड़ाते हैं।
बरसात जो आए कागज़ की नाव बनाते हैं,
पत्थर मार पड़ोसी के फिर से 'आम' गिराते हैं।
सारी अक़्ल...
सारी समझ...
कहीं ताले में बंद कर आते हैं,
बचपन के वो किस्से आज फिर दोहराते हैं।
वक़्त से थोड़ा वक़्त और माँग लाते हैं,
चलो यादों के संदूक में थोड़ा झाँक आते हैं।
- कल्पना पाण्डेय
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