चाहतों का रंग
मयस्सर होती नहीं अब सुकून और ख़्वाब
हर सवाल का कहाँ कोई मिलता है जवाब
माना चाहतों के रंग बिखरे हैं फिज़ाओं में,
मगर हर मौसम का कुछ अपना ही है रुआब
तस्सली कर लेते हैं ख़ुद से ही मिलकर कभी
लोग कहते हैं देखो! ज़माना है खराब
सादगी भाती नहीं सब नकाब ओढ़े फरेब का
महफ़िलें सजती हैं, बिकती हैं, हुस्न-ओ-शबाब
खुशबू प्यार की महसूस अब होती नहीं ''ऐ मलिका''
बिखरा पड़ा हो हर गली जैसे दर्द का तेज़ाब।
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