मुझको रात भर
मुझसे ख़फ़ा हैं जाने वो किस बात पर
नाराजगी दिल में लिये बैठे तो हैं,
होंगे गिले शिकवे भी मुलाकात पर
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मज़हब ने इंसानों को, हैवान कर दिया
इंसानियत से किस क़दर अंजान कर दिया
बे-गैरतों ने ख़ुद अपना, ज़मीर बेचकर
फ़रिश्ते क्या ख़ुदा को भी, हैरान कर दिया
ऐसा भी क्या रखा है, जन्नत की हूरों में
नस्लों ही को जो अपनी, कुर्बान कर दिया
बेकार ना जाएंगी, बेगुनाहों की आहें
जिनके घरों को तुमने, श्मशान कर दिया
इस बुज़दिली ने तुम्हारी, दिलों में हमारे
झोंखे को हवा के भी एक तूफ़ान कर दिया
गुजरोगे इसी दर्द से तुम भी तो एक दिन
कहते फिरोगे फ़िर ये क्या भगवान कर दिया
-Kalpana Dixit
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कैसे लिखूं मैं ग़ज़लें
तू साथ जब नहीं
शब्द तो हैं मगर,
ज़ज्बात अब नहीं-
रहना है तेरे दिल में, मेरे दिल की ये ज़िद थी
फ़िर भी ना क़रार इसको आएगा पता ना था-
ना कर हरा तू इन्हें फ़िर से, हवा बन के
कभी तो आ मेरे ज़ख्मों की, दवा बन के
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करूं क्या फर्क़ अब कोई, उजाले में अँधेरे में
ये दिल महफ़ूज़ रहता है, तेरी बांहों के घेरे में-
इस इश्क, मुहब्बत से मेरा दिल सा भर गया
कभी उतरा था दिल में आज वो दिल से उतर गया-
वहशी और दरिंदों को हम, यूं ही हँस कर टालेंगे
ग़र फ़िर भी ना बात बनी तो, candle march निकालेंगे...
चाहे फ़िर क्यूं ना वो, इस सारे समाज को ही डस लें
हम सांपों को दूध पिला कर, आस्तीन में पालेंगे
जीवन देती है, उस नारी से हमको क्या सरोकार
बात धर्म की हो, सर पर धरती आकाश उठा लेंगे
मेरे घर की बात है ये, ना तेरे घर की बात है ये
आपस में एक दूजे से, ये कह के ख़ैर मना लेंगे
बंद करो ये अदालतें, और कानूनों का त्याग करो
ख़ुदा सज़ा देगा ये सोच के हम ख़ुद को समझा लेंगे
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जहाँ क़दम क़दम पर बलात्कार
हर मोड़ पे बैठे अपराधी
कैसा ये आज़ाद देश, और
कैसी फ़िर ये आज़ादी-
इज़हार-ए-मुहब्बत से ये, साफ़ मुकर जाते हैं
लिखूं जो तुम्हें काग़ज़ पे अल्फाज़ बिखर जाते हैं-