Kajl Arora   (Kajl Arora)
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Joined 18 June 2019


Joined 18 June 2019
31 MAR AT 20:32

पुलकित हो जाता है तन मन
जब कदम उस आंगन में पड़ते है
जहां बचपन की अटखेली में
लड़कपन अंगड़ाइयां भरता था
जीवन निरंतर आगे बढ़ते हुए
जब बचपन आकर हाथ थम लेता है
कदम उन्हीं गालियों में आज भी ठहर जाते है
जहां कभी बदमस्ती से दौड़ लगाया करते थे
और निगाहें अब उन्हीं को ढूंढा करती है
जिन से अदम्य सफ़र अपना सुहाना था

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13 FEB AT 14:05

कौन जान सका हैं दर्द उन सुर्ख मुरझाए पत्तों का
हैं दर्द बेइंतहा उनमें भी अपने वजूद से टूट जाने का
कुछ हिस्सा क्या होगा अब भी उन बेरंग दरख़्तो में
जिसने सर्द हवाओं में छिड़क के सुला दिया अंधेरों में
अगर सम्भल पता दरख़्त उनको अपने पनाह में
कभी ना गुम होते सुर्ख मुरझाए पत्ते इन आबोहवा में

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8 FEB AT 23:25

हे कलयुगी मानव सुनो ! धरती माँ की पीड़ा हरो
रोती बिलखती ममता का, इतना ना जीना दुश्वार करो
अपने स्वार्थ की चक्की में भाई भाई को बांट दिया
राजनीती के खेल में कितनो का खून सफेद किया
षड्यंत्र की अग्नि से रोटियां तुम्हारी सीकती
कोई ओर मुद्दा नहीं तो हिंदू मुस्लिम का कूदा सही
बनकर सनातनी के ज्ञानी ध्यानी
मौन करे सबकी वाणी
भ्रात्व का तो ज्ञान नहीं , कैसे हो तुम सेनानी
धरतीमां के सच्चे पुत्र कहलावे ,ऐसे हो तुम अभिमानी

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1 FEB AT 22:57

ना करना किसी से शिक़वे,
शिकवो के बदले शिक़वे मिलेंगे
मिल जाए कोई गिरोहों को खोलने वाला
तो उलझने वाले लाखो मिलेंगे
कहां समझता है कोई , ना समझाने वाले होते हैं
गिरती दीवार की ईंटे चुराने वाले होते हैं
ज़ख्मों की पीड़ा को बस ज़ख्मी ही जाने
अब कहां कौन ज़ख्मों को सिलने वाले होते हैं
ज़ख्मों को भी नश्तर के दे ऐसे
जमाने में हंसी उड़ाने वाले होते हैं

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23 JAN AT 16:43

मिल जाए जब साथी पुराना
बन जाए यादों का सफर सुहाना
ना हो ख़बर रात की ना दिन का ठिकाना
याद रहे बस फ़लसफो का फरमाना
शिकवे शिकायतों का ना हो बहाना
हो जाए फ़िर मिज़ाज अपना भी बेफिक्राना
याद हैं तुम्हें चोरी चोरी वो रातों का जगना
कैसे भूल जाएं तुम्हे वादों कसमों में बांधना
अपनी बातों से तुम्हे कायल करना
तुम्हे तंग करना सुनना कोई अफसाना
फिर भी तुम्हारा हमारे एहतराम में सिर झुकाना
हां ! सुकून दे जाता है साथी कोई पुराना

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13 DEC 2024 AT 10:17

क्यों मेरी ये धूरी तेरे ही ईदगिर्द घूमती है
रहना चाहूं दूर तुमसे ही
फिर क्यों तेरी तरफ ही खींचती है
अनजान रिश्तों में बंधी सांसों डोरी
हर पल तेरा नाम ही रटती हैं
पाने की हसरत नहीं
बस तुमको निहारना ही काफ़ी हैं
कितना अंतर है ना तुम्हारी और मेरी मोहब्बत में
मैने हर सांस के साथ तुम्हें याद किया
और तुमने मुझे हर ढलती शाम के साथ भुला दिया
समझने की सलायतो का अब वो दस्तूर चलता नहीं
मुकाम ए जज़्बातो का मंजर अब वो दिखता नहीं
तो सोचते हैं , जिंदगी की एक किताब लिखेंगे
उमर तमाम यादगार तेरे जाने के बाद लिखेंगे
लिखेंगे कैसे सारी पहेलियों को सूझा दिया हमने
उलझी रूठी सहेलियों को हंसा दिया हमने
उस में सारी कफियत बा हर्फे लिखेंगे
नाम तुम्हारा बा पोशीदा रखेंगे
पर जुस्तजू तुम्हारी हमेशा करेंगे

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13 DEC 2024 AT 10:11

सुनो ! क्या बदल गई हूँ ,थोड़ा सा निखर गई हूँ में
हां............तेरी बेरूख़ी से थोड़ा संभल गई हूँ मैं
जाना था जिस शिखर पर वहाँ पहुंच तो गई हूँ मैं
दुनिया की सबसे उन्दा तस्वीर बनाया था तुम्हें
आज जिस शिखर पर हूँ वहां बिठाया था तुम्हे
ज़िंदगी के हर वजूद में समाया था तुम्हें
मानती हूँ , थोड़ा मुश्किल था सफ़र आसान ना था
पर तुम्हारी अदायगियोंं से खुद को पहचान गई हूँ में
हां ......सच में , थोड़ा सा बदल तो गई हूँ मैं

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11 DEC 2024 AT 15:38

कहते हैं वो हर ख्वाहिशों को पूरा करेंगे
पर हर ख्वाहिशों की कहा मंजिल मिलेंगी
एक दफन होगी तो दूसरी काबिज़ होगी
मांगू दुआ बस उस रब से अभी
तू मिल जाए मुझको यही कही
मन्नतों के इस शहर को कब किसने आबाद किया
जिसने किया वहीं बर्बाद हुआ
अकेले तुम तो नहीं चले थे इस करवा में ए मुसाफ़िर
बहुत मिल जाएंगे तुम्हें यूंही इस बर्बाद- ए- राह में
छोड़ो ख्वाहिशों की हसरत को
जो पल मिले उन्हें खुशी से गुजर लो
वक्त का पहिया जब करवटें खायेगा
साथ सब हसरतें ले जायेंगा
फिर कुछ ना तू कर पाएगा

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11 DEC 2024 AT 15:27

बहुत अरसा हो गया तुमसे बात लिए हुए ,
तुम से लड़े हुए तुम पे बिगड़े हुए
तुम मनाने की आदत भूल ना जाओ ,
इसलिए चलो फिर से
पुरानी दोस्ती को आबाद करते ।
लड़ाइयों को फिर से सिलेवार करते हैं
मैं बिगड़ू मनाना तुम मुझे , मैं रूठूं हंसना तुम मुझे
दूर अगर मैं चली जाऊ तो वापिस बुलाना तुम मुझे
पर इन सब हसरतों की हसरत तुम ना कभी करना हमसे
खुशनसीब हो तुम , ख़ुदा ने हमारी दोस्ती से नवाजा तुम्हें
चलो फिर तुम्हारी परेशानियों के सिलसिले का परवाज करते है
आओ हम अपनी दोस्ती का आगाज करते हैं

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16 AUG 2024 AT 18:49

हैं वासना की ये कैसी भूख जो एक ज़िंदगी को निगल गई
सही गलत सोच की रह छोड़ वो मानवता को ही खा गई
क्यों समझ नही आता उन्हें उनकी हैवानियत
कारण कैसे हर अरमान तार तार हुए
जिन्हे खुले आसमान में उड़ना था जिन्हें
अब वो चंद जंजीरों के पिंजरों में कैद हुए
जिस कोख से पैदा हुए उसी कोख को बेज्जत करे
हैं घर शीशे के उनके भी फिर औरों पे क्यों पत्थर से वार करे
रह जाएगा सारा वजूद धराशाही उनका भी
जब क़यामत लायेगी उनके कारनामों की हिस्सेदारी भी
मिट्टी के ढेर के पुतले मिट्टी में मिल जाएंगे
ना होगी फिर कोई हैवानियत उनकी ना रह जाएगा वजूद उनका भी

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