ना जाने क्यूँ सब ठीक होते हुए भी कुछ ठीक क्यूँ नहीं लग रहा..ना कोई है यहाँ ना मैं हूँ कहीं फिर भी ना जाने क्यूँ ठहर सी गई हूँ कहीं..कुछ है नहीं कहने को फिर भी जैसे कहना हो बहुत कुछ..दिल शांत है इतना की इसमें शोर बहुत है..तस्वीर, ख़त और कहानी सब पढ़ लिया तुम्हें ना पढ़ा तो फिर क्या ही पढ़ा..उधार बचा नही अब कुछ ना जाने ये आँखें किसका कर्ज उतार रही है..रात ढल तो रही है तस्ववुर में किसी के ना जाने ये चाँदनी क्यूँ मुरझा रही है.. कोशिश तो बहुत की उस छोर को छोड़ने की कामयाब हो ना सका वो जो पहलू में उसके था..
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