तुम्हारे और मेरे बीच के संवाद
एक तुम्हारे अलावा हर कोई जानता था
क्योंकि उन सँवादों में तुम हो कर भी नहीं थे
और मैं सिर्फ़ वहीं थी हर उस पल में जो तुम्हारे साथ बीता
क्योंकि मैंने बस इश्क़ सिखा और वही किया
तुमने गणित सिखा तो सभी पलों को तौल दिया
और अपने हिसाब से उसका मोल दिया
पर काश कभी समझ पाते,
गणित से जीविका चलती है जीवन रिश्ते और भावनाओं से चलता है
कुछ देना था तो केवल थोड़ा वक़्त देते
यूँ भावनाओं को चुप्पी और कुछ किश्तों में तो ना तोलते
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#Advocate by profession
#judiciary Aspirant
#SocialActivist by ... read more
श्रम का जिसके नहीं लगता कभी सही मोल
ईट पत्थरों का बोझ उठा कर जोड़ता है कभी किसी के सपनों का भी वो घर
तपती धूप में भी डट कर वो काम करता है
खून पसीने से एक वक़्त कि रोटी का इंतज़ाम करता है
"वो मज़दूर है साहब" बस इतनी ही वो पहचान रखता है
कभी दो बोल मीठे उससे भी बोल कर देखना इतने सम्मान का वो भी अधिकार रखता है।-
श्रम जेकर कहियो सही मूल्य नहि बुझाइत अछि
ईंट-पाथरक भार उठबैत कखनो काल ककरो सपनाक ओ घर सेहो जुड़ि जाइत अछि
गरम रौद मे सेहो नीक काज करैत अछि
पसीना आ खूनसँ एक समयक लेल रोटीक व्यवस्था करैत अछि
"ओ मजदूर छथि सर" एतबे बुझल छनि
कखनो काल दू शब्द हुनका सँ मधुर होइत छनि, हुनका सेहो एतेक सम्मान करबाक अधिकार छनि।-
तुम घर जाती पंछियों के साथ वापिस आने का वादा करके गए थे हम हर शाम तुम्हारी राह निहारते रहे
शामें बीतती रही, तुम मुलाक़ात यूँ ही टालते रहे कभी हमें कभी तुम्हें बेवजह ही "तुम" वजह बताते रहे-
ये हवाएँ ये मौसम, ये रोशनी ये मंज़र
सब तुम्हारे होने का एहसास दिलाते हैं
मन को ये सब लुभाते हैं
पर जो खिल रही है लबों पर बन के मुस्कान वो वजह हो तुम
एक लफ्ज़ में कहूँ तो मेरा "सुकून" हो तुम
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ए शाम तु थोड़ी देर और ठहर जाया कर
उस ज़हनसीब से मेरी मुलाक़ात तो मुकम्मल कराया कर
और जो तु ढलती है इस तरह
तो चाँद को क़ासिद बना मेरे अहबाब तक पैग़ाम पहुँचाया कर-
मौसम और भी आएंगे अभी राह-ए-ज़िंदगी में
आज पतझड़ सही बसंत तक बाग़ीचे में कुछ और पौधों के इंतेज़ामात रखना
बिखरेगी जब खुशबू किसी फूल की हर उस पल को मेरा पैग़ाम समझना
देख कर काँटे तुम खुद से दिया मुझे इनाम समझना
पर मायूस मत होना......
मैं खुद बहार हूँ जानती हूँ जिस प्यार की मैं हक़दार हूँ
मरूस्थल में भी मैंने मौसम बदलते देखें हैं
हर मौसम में ढल जाने का हुनर रखती हूँ
मैं वो हूँ जिसने कैक्टस में भी सुंदर फूल उगते देखे हैं-
जब ज़िक्र छिड़े मेरा कभी, तो मुकर तो ना जाओगे
देख कर किसी राह पर हमें, फिर बिखर तो ना जाओगे
जुदा हुए रास्ते तो क्या यादों में संजो कर देखना
हाथ ना थाम सको अगर कभी तो मन थाम कर रखना
बहुत मिलेंगे मुसाफ़िर इस सफर में
"मैं" एक हवा का झोंका हूँ बस ये मान कर ही ज़िंदगी काट लेना
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किसी संगमरमर कि खुबसूरती नहीं
तुम्हारे लबों को आकार बदलते और चेहरे के भाव मैं देखना चाहती हूँ
नक्काशी नहीं तुम्हारी हाथों का अपने हाथों में स्पर्श और उनकी गरमाहट महसूस करना चाहती हूँ
प्रेम का प्रतीक देखने किसी महल या मकबरे तक नहीं
बस उन चार दीवारों तक तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ
जहाँ तुम रहते हो, तुमको घर कहना चाहती हूँ
और उस घर को कह सकें हमारे प्यार का प्रतीक कोई
बस इतना ही तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ-
फिर इक दफ़ा
मैं वो जहान चाहती हूँ
वो कल-कल बहता झरना
वो खुला आसमान चाहती हूँ
हाँ प्यार है मुझे इन वादियों से
मैं वही वादा-ए-विसाल चाहती हूँ-