सबको संभालते-संभालते
खुद कितनी ही दफ़ा बिखरा हूँ।
जबरन थामे हुए,
रिश्तों के सिरे,
कई बार खुद पर बिगड़ा हूँ।
क्यों नही जाने देता उन्हें,
जो जाना चाहते है,
क्यों उन्हें खुद से जोड़े रखने की
ज़िद्द पर अड़ा हूँ।
ये कैसा मोह है मुझे,
मेरे "अपनों" से की
पीकर अपमान का घूँट हर बार
फिर,
उनके सामने अपमानित होने के लिए खड़ा हूँ।
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