काशफूल   (जंगली गुलाब)
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Joined 2 April 2020


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26 JUN AT 19:35

इतिहास साक्ष्य!

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23 JUN AT 19:51

प्रगतिशील
मृत श्मशान का शिलान्यास

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19 JUN AT 22:02

तुम्हारे
हृदय की देहरी लांघते हुए
अपने आल्ते से सने पदचिन्हों की मोहर
मैं अश्रुओं से प्रक्षालित कर आयीं हूं
अब तिरती फिरती नहीं रहती
तुम्हारे हृदय की मांसपेशियों में "मैं"
अब तुम्हारा हृदय
पहिले की ही भांति
ज्यों-का-त्यो हो गया है!
मेरा अस्तित्व भी कभी था
इसका अता-पता भी न रख छोड़ा मैंने तो
सहज-सुलभ होगा तुम्हारा हृदय अब तुम्हारे लिए।
तुम देखना!
कहीं तुम्हारे हृदय से मिटे पदचिन्हों से
चिरस्त्रोता नदी की धार तो न बह निकली?

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27 APR AT 19:24

मेरी सिमटी-बिखरती जिह्वा भी
थक-हार चुकी है फुदकते-फुदकते कहीं को।
मुझ वाचाल का कंठ भी
अपनी चीखें ही अवरूद्ध करने लगा है अब तो!

उजियार की देहरी
लांघ-लांघ हांफ भागी ही फिरती मैं तो!
मेरी विक्षिप्तता भी,
नग्न हो चुकी है सयाने शब्दों के समक्ष देखो तो!

कह
विधाता!
वो कौन से,
अमावस का अंधियारा होगा,मेरी जीवनी में अब तो,
शवाच्छादन करेगा प्रतिनिधित्व, मेरी देह का जिस मुहुर्त को!

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23 APR AT 22:35

मेरे नेत्रों की बीहड़ता के
खिसकते पठार!

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29 MAR AT 20:00

हो प्रफुल्लित
रंगदारी भी दी थी यम को मैंने!
यम हो सिफर-
वास्तविक अनुभूतियों का,
समापन कर गया मेरी देह की।
अब-
चिर-समाधि चाहती है,
चिरंजीवी सठीयायी आत्मा भी मेरी।

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29 MAR AT 9:17

मैं
गुंझर सी वाचाल हूं!

मैं चाहती हूं-
मौन अब अनभिज्ञ ही रहे,
मेरे हाहाकारी क्रंदन से।
क्योंकि.....
अपनी सतत ध्वनियों की देगची से,
अछोर शब्द परोसती ही रहूंगी 'मैं' मौन को।

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28 MAR AT 17:24

मैं
कौन हूं ?
और स्वयं में क्यों नहीं हूं ??
तो कहीं ऐसा तो नहीं
कि
मैं नगण्य हूं!
तो फिर मेरी यह प्राणहीन नगण्यता
क्यों अभिलाषित हो रही है?
कज्जल-पुते डगर से होकर
तुम्हारे मस्तिष्क से तुम्हारे‌ धंसे हृदय का सेतु
स्वेच्छा से पार करने हेतु!

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27 MAR AT 9:20

मैं
विक्षिप्त जो
पुनर्जीवित करती रहती हूं
शनै: शनै:
हृदय को तुम्हारे।
जिससे..
तुम्हारे हृदय का प्रेम
मेरे प्रति पुनः मृत हो जाता है।
और
मैं विक्षिप्त
तुम्हारे प्रेम में
पुनर्जीवित हो उठती हूं।

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26 MAR AT 11:30

प्रेम में पड़ते ही
मैं बेहिचके बोल पड़ी,
प्रेम है प्रलय बाबू आपको भी!
प्रलय बाबू-
पहिले मौन फिर महामौन हुए
और मैं.....मैं तदोपरांत भी
बेहिचके बोलती ही रही
सिसकी रोक कंठ,
निर्रथक हंसी-हंसती ही रही व्यर्थ सी!
और कल
भविष्य के भावी क्षणों में:
मैं नहीं रहूंगी,
न यह सृष्टि ही होगी।
सर्वत्र पल्लवित
प्रलय बाबू का वह नाद होगा,
जो जन्मेगा बेहिचक प्रेम के कारण ही!

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