कामातृष्णा   (©️कामातृष्णा)
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Joined 4 January 2021


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लेखन मेरा उत्कृष्ट हुआ
जब पुरूषांग प्रविष्ठ हुआ

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"ओ प्रिय तू शीघ्र आ जाओ"

प्रतीक्षा में कुम्हला रही तरुणाई
सूख रही अधरो पर अरुणाई
ओ प्रियतमा शीघ्र आ जाओ
इन्हें लबों का अंग लगा जाओ

देखो रूष्ट हो रही है कंगन
सूना सूना हो गया आँगन
छुई मुई सी गजरा मुरझा रही
अलकें चूम चूम सुर्ख़ गालों को
मेरी चिरसंचित तृष्णा बढ़ा रही

पायल प्रेमराग सुना रहें हैं
झूमके भी आज सता रहें हैं
इतनी व्यथाओँ में रहा नहीं जाता
इस रोग का निवारण बता जाओ
ओ प्रिय तू शीघ्र आ जाओ
मेरी पिपासा तू बुझा जाओ

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यह पथ है बड़ा सघन
कैसे करेगा पथिक गमन
सकेती से मरूंगी मैं
इतनी पीर कैसे हरूंगी मैं

बिलख जायेगी कण कण
तू प्रविष्ट करेगा जिस क्षण
क्षीणभीन हो जायेगा पटल
खंजन नयन होगी सजल

क्षिप्रता से तू इतना न बढ़
हे क्षीणक तू थोड़ी दया कर
बह जाएगी शोणित सरिता
विचरण को इतना न मर

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तू बैठा है किसके ध्यान में
आ डाल शमशीर मेरे म्यान में

मेरे अंकुरित यौवन कुम्हला रही
बहा अश्रु कब से तुझे बुला रही
तू बैठा है किसके गुणगान में
तू बैठा है किसके ध्यान में
आ शमशीर डाल मेरे म्यान में

मेरे कलश में मुख लगा दे तू
मेरे अगणित तृष्णा बुझा दे तू
तू आ अपना परायण साध
वहशी बनू मैं, तू मुझको बांध
क्या कर रहा अलकों के बगान में
आ डाल शमशीर मेरे म्यान में

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मेरे अधरों पे उसके लब विराजमान हैं
आगाज़ कर नीचे से वरना विधि अमान्य है

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आतुरता के किस्से
अंगूरी बदन पे दिखे
आदम का नक्काशी
बना गया मुझे दासी
सौप दिया स्वयं को
चूमने लगा व्योम को
वो रहा निष्ठुर सा डटा
पा मेरे दो क्षेत्रों में बटा
पूरी रात रही कराहती
उसके कर्मों को सराहती

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सुनो इन ठंडी हवाओं में खिड़कियां नहीं खुलती
इतनी जल्दी आनंदोत्कर्ष की पंखुड़ियां नहीं खुलती

ना जाने कितने सदियों बाद आया है ये वक़्त भी
कलाई पकड़ो तो तोड़ दो ऐसे में चूड़ियां नहीं खुलती

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अपने दोनो पहाड़ों के बीच
जब नज़रों के रथ दौड़ाती हूं
अपने ब्रह्मांड को देखने को

तो देखती हूं कि ----

दूर दूर तक सन्नाटे की बादल बिछी हुई है
जैसे वर्षों से सुखा पड़ा है यहां
शायद इधर बारीश होना भूल जाती है
कहीं ज़मीं खुदरिली,
कहीं समतल सपाट
कहीं चौड़ी सी, कहीं पतली है

चलते चलते मेरे रथ का पहिया
फस गया मध्य में
जैसे यहां कोई कूप थी
जो अब सुख गई है
उसके कुछ दूरी पे दूब उगी हुई है
जो हरियाली के चादर ओढ़ा रखी है
बची कुची ज़मीं को
शायद उधर सरिता बहती है

शायद इसीलिए वो ---
मेरे पहाड़ों से उतरकर
सीधा वहां प्यास बुझाने
ठहर जाया करता है

मैं उस नदी को देखने के लिए
नज़रों की रथ आगे बढ़ाती हूं
मगर मेरे रथ के पहिए
दूब में उलझ कर वहीं रह गई।

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वट-वृक्ष पे उग रहे हो वट जैसे
ए जघन पे उगते घुंघराले केश

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अरुणाभ सी अधरों पे
मन्मथ थपकी लगा गए
अधरामृत पिलाकर मुझे
मेरे तलब और बढ़ा गए
कहां जाऊं, मैं क्या करूं?
सुध-बुध खो चुकी हूं मैं
उमंगें हृदय में लहर रही
बेसुध हो चुकी हूं मैं


( अनुशीर्षक में पढ़े )

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