कभी कहानी का अहम किरदार हुआ करता था
उसके कान का एक झुमका मेरे पास हुआ करता था..
कहने को नज़रें झुक कर मिलती थी वो मुझ से
पर नज़र में उसकी बस मैं ही मैं बसता था..
ज़ुल्फ़ें खोलती थी मेरे लिए कभी वो, कभी
मेरे ही अहतराम में दुप्पटा सर पर रखती थी..
मैं उसको छूता भी तो कैसे छूता
वो होंटों पर ना और आँखों में हया रखती थी..
उसके झुमके का बड़ा किरदार था
जब शरमाती थी बाल पीछे करती थी..
एक रोज़ खुल कर गिरा वो झुमका मेरे सामने
वो मदहोश थी कहाँ किसी की सुनती थी..
उस मुलाक़ात के बाद जब भी मिली थी वो मुझ से
सुनो!! मेरा झुमका मिला क्या ज़रूर कहा करती थी..
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