ये मैं नहीं , मेरी कलम बोलती है,
जनता पर सरकारों की जुलम बोलती है,
आज भी कई लोग सोए हैं फुटपाथ पर ,
‘सब ठीक है’ सरकारें ये बेशर्म बोलती है ।
उठा धर्म के पताके कभी राष्ट्रवाद के नारे,
रोटी, कपड़ा, मकान ,बेरोजगारी, खत्म हो गए मुद्दे सारे,
जो भी है कुर्सी पर बैठे, आतुर हैं बांटने वतन को सारे,
याद रहे अब हवाएं भी नफरत वाली बहती है ,
लोकतंत्र भी अब ‘मिट्टी की घर’ सी ढहती है।
ये मैं नहीं , मेरी कलम बोलती है,
जनता पर सरकारों की जुलम बोलती है,
‘सब ठीक है’ सरकारें ये बेशर्म बोलती है।
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