कुछ तो ख़ास रिश्ता है कुदरत और हमारा
आज चाँद का दीदार हुआ और कल होगा तुम्हारा-
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रीती रिवाज का ताना कस
तुम मेरा ना इतिहास रचो
मैं भूतकाल की सोच नहीं
मैं कल की तैयारी हूँ
मैं आज की नारी हूँ-
यह टूटी दीवार मेरे दिल का आईना दिखाती है
इसको चिटकता देख दादा जी की बहुत याद आती है
दादा जी ने इसका महत्व तब मुझे समझाया था
खुश होकर, उन्होंने जब मिस्त्रियों से यह बनवाया था
लिख नाम मेरी पोती का ऐसे,ज़िसे कोई ना मिटा पायेगा
अगर चला गया दुनिया से मैं ,यह मेरी याद पोती को दिलाएगा-
ना कर इतना आतंक
इंसानियत खत्म हो जाये
ले बदला फिर तुझसे यूँ
धरती भी वही दोहराये-
मिठी रूई ,खट्टी इमली ,रंगीन गुब्बारा अब कौन लाएगा
नाजाने कब वो सौदागर,मेरी गली फिर वापस आएगा-
पाया तुझे कठिनाइयों से
मुरादो से ,प्राथनाओं से
गर्भ के अन्दर वो उगता बीज
ले आता तुझे मेरे पास है
माँ होने का अहसास ,इसलिए कुछ खास है
उसी के बारे मे सोच सोच कर
समय कैसे निकल जाता है
उसकी न्नही ऊंगलियों का मुझे छू ना
करवटे बदलना ,माँ पुकारने की आवाज हैं
माँ होने का अहसास ,इसलिए कुछ खास है
मन ही मन तुझे पालने मे झूलते देखती हूँ
तरह -तरह के नाम बाबू ,सोना सोच खूब थिरकती हूँ
हैं पीडा भरे दिन ,कभी जागती कभी सोती हूँ
बीत जाएंगे यह भी सारे दिन ,जब तू मेरे साथ हैं
माँ होने का अहसास ,इसलिए कुछ खास है-
काफिला
कुदरत ने कैसे कर दिया सब बयाबान
ना आँखों मे अश्क हैं ,ना खुल रही जुबान
यह वो हादसा जिससे कोई महरुम नहीं
उन रोते बिलखते मुसाफिर का दर्द कैसे करू बयां
ना आँखों मे अश्क हैं ,ना खुल रही जुबान
थका हारा चल रहा करता वो पलायन
पैरो में छाले ,अन्न का ना कोई नामोनिशान
सृष्टि का बदला निकला बेक़सूर पर
ना रुक रही धरती ,ना झुक रहा आसमान
ना आँखों मे अश्क हैं ,ना खुल रही जुबान
बड़ रहा है काफिला ,बड़ रही हैं रफतार
दो रोटी के लिए वो हो रहा तलबगार
यह कैसे गुनाह की सज़ा है
कुचे कुचे पर जानवर और क़फ़स मे बैठे हैं इंसान
ना आँखों मे अश्क हैं ,ना खुल रही जुबान-