दिल लगाकर हम तो पछताये बहुत।
हो गए रुस्वा जफ़ा पाये बहुत।
टूक ए माज़ी, कहर ढाये बहुत।
हर दफा तेरी तरफ जाये बहुत।
तीरगी में बुझ गई, ना-खुश शमा,
लो सितारे गम के चमकाये बहुत।
है बहुत खुश,कैद दीवारों में किया,
यूँ अज़ल से इश्क़ चिनवाये बहुत।
ख़ुश्क साहिल हो गई है जिंदगी,
हसरतों की प्यास तड़पाये बहुत।
खामुशी भी चीख़कर बोले सुनो,
है सिफर हर दांव समझाये बहुत।
साहिबा,ऐसी ख़लिश दिल में बसी,
जर्द पत्तों सी सहर छाये बहुत।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-
स्वरचित रचनाएँ..
सर्वाधिकार सुरक्षित..
🙏🙏
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उभनती अनियंत्रित... read more
कुछ बात जुनून की ऐसी थी,
सिर्फ नामी सुकून के जैसी थी,
जो उड़ा फ़ाख्ता,और सब खत्म,
उस इश्क़ की तासीर कैसी थी।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-
सुन रहे हो न लौट आओ तुम..
उन्हें बचाने के लिए,
दुनिया बचाने के लिए
तुम्हारे साथ से खिलती मुस्काती
ज़िन्दगी लौटाती उन
प्रेम की परतों में सिमटें
सम्पूर्ण ब्रह्मांड को
बचाने के लिए...
(पूर्ण पढ़ें....कैप्शन में)
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-
जहाँ मैं, सिर्फ मैं हूँ
बिना किसी दिखावे के,
और तुम....
मेरा सच....
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)
प्रेम की परतें..पूर्ण पढ़ें अनुशीर्षक में..-
एक घर का होना,
उसके सम्पूर्ण महत्व पर शोध,
और जिंदगी में उसकी अहमियत
समझने के लिये जितना
उस घर के अंदर रहना है जरुरी,
उतना ही जरुरी है बाहर निकलना,
बिना इन दोनों क्रियाकलापों के
तुम नहीं जान सकते कि
ईंट-गारे की उस इमारत
में सुरक्षा के अलावा
इतना और ऐसा
क्या महत्वपूर्ण है कि
दुनिया का हर इंसान
अपना घर बनाने की
जद्दोजहद में लगा रहता है।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)
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माज़ी का तिलिस्म
छिटका नींद का कतरा,चला यादों का काफिला है,
शुरू फिर से हुआ देखो,गम ए दहर सिलसिला है।
एक दबी शरर तड़पाती है,बुझ क्यों नहीं जाती,
बोझिल सा हर लम्हा,सुकूं जहन से फिसिला है।
कहाँ मिली है रिहाई माज़ी के तिलिस्म से मुझे,
ता-उम्र की कैद है ये,न समझो कोई चिल्ला है।
छत की सुर्ख़ ईंटों से झांकती, रेंगती देखो रेत,
मंसूब ए गम,पेच-ओ-ख़म सा,मुझको मिला है।
मिरी तमन्नाओं का तमाशा बना हँसती है रात,
न मिटता शब और शफ़क़ का ये फ़ासिला है।
रात और रात आती नजर देखूं जब खिड़की से,
सिहर जाती हैं धड़कनें जब जब पर्दा हिला है।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-
हसरतों की रेत पर
हसरतों की रेत पर इक तेरा ही नाम लिखती हूँ।
अपने उर अभ्यन्तर को तेरा ही धाम लिखती हूँ।
ख्वाहिश थी पहाड़ पर,इक आशियाँ हो अपना,
क्षितिज पर मिलन की,सुरमई शाम लिखती हूँ।
छिटके दूर ख़्वाब सारे,वक्त पलकों में जा सोया,
बिगड़ा काफिया अपना,उसे बहराम लिखती हूँ।
अधखुली खिड़की से आती धूप गुदगुदाती नहीं,
लब सस्मित,दिल में उठता कोहराम लिखती हूँ।
जख़्म से आहत है तन,मेरी बगिया के फूलों का,
उम्मीद खोये ख़्वाबों का,हाल तमाम लिखती हूँ।
बिना साज ओ सुर के खामोश हुई गजलें मेरी,
दर्द की धुन पर अशआर बनते लाम लिखती हूँ।
सिल लिए थे लब यूँ ही,अनकही सालती रही,
मजार ए हसरत पर बीते,वो कलाम लिखती हूँ।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)
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ढोये जा रहे हैं इक लाश को काँधे पर,
इक उम्र गुजर गई जनाजे की तैयारी में।
पूर्ण प्रेम की परतें पढ़ें...अनुशीर्षक में..
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-
सोज ए निहां लिए खड़ा रहा दरख़्त इक,
चौमासे से महरूम उसका हर साल रहा।
✍️ज्योति धाकड़(साहिबा)-