ज़लील तवायफ़ -
जिस्म से पर्दा हम उठाये हुए है,
जिस्म-ए-तवायफ़ का बनाये हुए है..
दिल आज भी पाक है,
खुद की हसरतों को कहीं दफनाए हुए है..
आंखों मे ना कोई ख़्वाब देखा है,
हर चेहरे पर हमने एक नक़ाब देखा है..
ए-दर्द-ए दिल बयां करें तो किसे करे?
हर चाहने वाले से बस रात भर का हिसाब ही रहा है..!!
मौका पाते ही हर उस शख़्स ने वहशियत ओढ़ रखी है,
"और देखो तो ज़रा"
झूठी शराफ़त की चादर हर शक़्स ने कैसे ओढ़ रखी है,
किसी को अपनो ने बेचा है यहाँ,
कोई जुल्मो और तोहमतों का शिकार हुआ है...
हमारी कहानी कौन सुनता है..साहब..!
इस समाज में बस आज तक कारोबार हुआ है...
खता बस इतनी हुई है पेट की भूख के लिए
प्यास बुझाई है..,
इन रंगीन गलियों में संस्कृति भी मलिका बन कर आई है..
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