सोया है, तो जाग जा,
ग़ुलामी की जंजीरें अब तोड़ जा।
झुका है, तो खड़ा हो जा,
अपने हक़ की राह खुद मोड़ जा।
हंसा है, तो रोता जा,
दर्द को आग बना, जज़्बा संजोता जा।
अकेला है, तो ज़माने को जा,
इंकलाब की राह में दीप जला।
वक्त है, तो घड़ी बन जा,
हर लम्हा क्रांति की बंसी बन जा।
रोशनी है, तो सूरज बन जा,
अंधेरों में जलने का हौसला रख जा।
जंगी है, तो क्रांति बन जा,
शोषण के विरुद्ध तू तलवार बन जा।
चिंगारी है, तो ज्वाला बन जा,
हर ज़ालिम का हश्र तमाशा बन जा।
विष है, तो ज़हरीला बन जा,
सत्ता के हर छल को निगलता चल जा।
हारा है, तो सर्वहारा बन जा,
जनता की ताकत का इंकलाब बन जा।
रुका है, तो चलता जा,
क्रांति की राह को ख़ुद बनाता जा।
ज़ुल्म के कतरे का हिसाब अब होगा,
इंसाफ़ की धरती पर नया सूर्य उगेगा!
- अरुण मलिहाबादी-
~आवारा प्रेमी
घर के छप्पर पर पड़ा तिरपाल और उस पे गिरती यह ठंडी ओस उसके नीचे बैठे हमारे बप्पा-अम्मा आग जला रहे होंगे, पड़ोस के झमई चाचा भी संभवता बैठे ही होंगे।
शहर की घनी आबादी के बीच एक घर के किराए कमरे में यह सोचना* मेरी आग को ठंडा होने नहीं देता।
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हमारे शब्द व्यवहारिक होते हैं और लोगों की समझ सैद्धांतिक और व्यवहार भविष्य में सिद्धांत बनता है।
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उर अंचल में बसी सादगी
कि नई ताजगी हो तुम
ए अरुण, कई दौर गुजरें..
ऐसी आदमीयत के लिए ।-
Our best moments Engraved on the wall of the heart like "paleolithic writing signs" would be understood by each and every upcoming archaeologist through that signs.
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मेरी सिफा का हर मरीज़ , एक निशा ले जाता है...
निहारती है जो दुनियां चांद , वह भी मेरी छत से नज़र आता है।
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मुखौटो के शहर में,
जिंदा इंकलाब हूं
बिकता हूं दिन - रात
मैं वो मज़दूर किसान हूं ।-
ज़िंदगी एक किस्सा है , किस्से में वो भी है
उसका हिस्सा है , अब ये दिल उसका है।-