माँ शब्द है....हर भाषा की परिभाषा है,
मां संजीवनी है, हर दुःख में दिलासा है ।
मां है तो...जहां की तमाम खुशियां हैं,
बिन मां के जिंदगी हर रोज़ तमाशा है ।
मां से ममता , मां से महफूजियत है,
मां से रौनक है..जीवन अभिलाषा है ।
मां उम्मीद है..आशाओं का पनघट है,
बिन मां के जिंदगी में घोर निराशा है ।
मां जीवनदायिनी, इक शीतल छांव है,
मां है तो दुआएं हैं..जीवन-प्रत्याशा है।
माँ शब्द है....हर भाषा की परिभाषा है,
मां संजीवनी है, हर दुःख में दिलासा है ।
मातृ-शक्ति को सादर नमन
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मुफ़्तख़ोरी भी एक लाईलाज बीमारी है
सदियों से फैल रही है,
आज भी जारी है ।
हर कोई शिकार है इसका यहाँ,
नुकसानदायक तो है ही
कभी कभी लाभकारी है ।।
हर किसी को यह खूब भा रही है
इसीलिए दिनबदिन यहां
मुफ्तखोरों की तादाद बढ़ती जा रही है
मुफ़्त की भला क़दर
कहाँ होती है
कुछ भी नहीं मिलता मुफ़्त यहाँ
देर सवेर इसकी
कीमत चुकानी होती है ।
हर आदत की रखी है नींव
मुफ़्त के सामान पर,
जनता भी तो ठगी जाती है
हर बार वोट के नाम पर ।
मुफ़्त की कमाई भी खूब होती है
जो भी करता है,
सब डकार जाता है,
उसे अपच कहाँ होती है ।
ख़ैर छोड़ो सब मुफ़्त की बातें
किसको यहाँ समझना,
किसे यहाँ समझाना है
लुत्फ़ उठाओ सब मुफ़्त का
बाय वन गेट वन का जमाना है ।
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कैसे,ज़हन में अमीरी को संभाल रखा है
बूढ़ी मां को घर से बाहर निकाल रखा है
जनाब, देखो अजीब शौक है बेटे का
घर में एक विदेशी कुत्ता पाल रखा है
किसानी,बेकारी फंदों पर क्या खूब झूल रही है,
जुमलों का क्या, जुबां पे हरएक कमाल रखा है
फिर से कर लेना वायदे,वायदों का क्या ?
निभाने को तो अगला ,पूरा साल रखा है
अब यह भी मिलेगा,कल वो भी मिलेगा
संभल के जरा,सजा के चुनावी थाल रखा है
पहले जी भरके खुद का खजाना तो भर लूं
नेकी वाला काम कल के लिए टाल रखा है
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शीर्षक-क्यों करें हम..?
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा..क्यूँ करें हम
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी,
कोई हंगामा बरपा..क्यूँ करें हम
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा..क्यूँ करें हम
हमारी ही तमन्ना...क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना.. क्यूँ करें हम
माहौल अच्छा हो,तुम भी तो चाहो
कोशिशों की इंतहा.. क्यूं करें हम
नहीं दुनिया को...जब परवाह हमारी
तो फिर दुनिया की परवाह क्यूँ करें हम-
To be continued
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धूप न हो तो,
छाँव की अहमियत कैसे समझोगे ।
धूप न हो तो,
बादलों की घटाओं के
बरसने को तरसोगे।
धूप आज
कुछ बदली बदली है,
कुछ जली है ,
कुछ अधजली है ।
अरमान हो चले अंगार
अंगार भरी लू चली है
पर जनाब !
यह उन जलते भुनते
इंसानों से तो भली है ।
यह उन रंग बदलते
रंगबाजो से तो भली है ।।"
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शीर्षक:-अधजली धूप
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"ज़िन्दगी तू कितनी बहरूप है,
कभी सुहानी छाँव है ,
तो कभी बेजार धूप है
गर्मी में दहशतगर्द,
धूप लगे बेदर्द ।
दुआ सी लगती है,
जब मौसम हो सर्द ।
जिस धूप के डंक,
गर्मी में डसते है ।
उसी धूप को हम,
सर्दी में तरसते हैं ।
उस मजदूर का दर्द कौन जाने ,
जो घर मे उजाले के लिए
दिनभर बदन जलाता है ।
वो अथक चलायमान है,
सरसमान है ।
बरगलाती धूप में,
अधजला होकर,
खुशहाल उनींदी ख़्वाबों में खोकर,
गिरता है,
सम्भलता है ।
फिर उठता है,
पसीना पौंछकर ।
लोग जलते है यहाँ,
फिर भी ,
एक दूसरे को देखकर ।
दिल इनका पिघलते न देखा,
झुलसते सूरज को सहेज कर ।
धूप न हो तो,
छाँव की अहमियत कैसे समझोगे ।
धूप न हो तो,
बादलों की घटाओं के
बरसने को तरसोगे।
धूप आज
कुछ बदली बदली है,
कुछ जली है ,
कुछ अधजली है ।
अरमान हो चले अंगार
अंगार भरी लू चली है
पर जनाब !
यह उन जलते भुनते
इंसानों से तो भली है ।
यह उन रंग बदलते
रंगबाजो से तो भली है
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लोग आपके बारे में अच्छा सुनने पर शक करते हैं लेकिन बुरा सुनने पर तुरंत यकीन कर लेते हैं !
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गर जिंदगी उलझे ख़्वाबों के भंवरजाल में,
सुन,यार मेरे तू मुस्कुराते रहना हर हाल में
टूट मत जाना इस जमाने की अंधेरगर्दी में,
मुनासिब जवाब ढूँढ़ लेना तू हर सवाल में
दुःखों का बवंडर मानस रौंदेगा तेरा हरपल
झेल जाना सब वक़्त के साथ कदमताल में
मतलबी लोग भिनभिनाएँगे मक्खी की तरह,
कल कोई भी नहीं पूछेगा हाल तेरे बदहाल में
जिंदगी जहमत उठाने भर का खेल है,प्यारे !
मत खोये रह जाना हाँ-औ-ना के अंतराल में
भावनाओं में मत बह जाया कर तू बार-बार
तैरना सीख ले अब ज़िन्दगी के तरणताल में
मत कोसना नसीब अपना यूँ बेकार बेवजह,
मस्त रहना'जीतू'सदा अपनी रोटी औ दाल में
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सुबह से थोड़ी गरीबी सी फील हो रही थी
कसम से...
जब से शिकंजी बना कर पी है..
तब से मन एकदम शांत है ।
🤣🤣🤣
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आप कितने अच्छे हो या कितने बुरे हो..!
यह पता ही तब चलता है
जब परिस्थितियाँ
प्रतिकूल (विपरीत) हों ।-