जितेन्द्र शर्मा 'वशिष्ठ'   (जितेंद्र)
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एक पल की राहत क्या करें
ज़िन्दगी तुझसे शिकायत क्या करें
Joined 9 May 2018


एक पल की राहत क्या करें
ज़िन्दगी तुझसे शिकायत क्या करें
Joined 9 May 2018

दूर उफ़क़ पर ढलता हुआ सूरज
ये शाम नहीं गुज़री यादों की रंगोली है..

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साथ चलते हैं उजालों में सहारा बनकर..
सांझ ढल जाए अगर हाथ छुड़ा लेते हैं सब

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माज़ी के गुलशन से कुछ चुन रक्खे हैं यादों के गुल
उनकी खुशबू से मेरी रातें मु'अत्तर होती हैं

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अवसर अमृत पर्व का, राष्ट्र का हो संकल्प।
विश्व गुरु भारत बने, होवे कायाकल्प ।।

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वो दराज़ कौनसी थी ..हो तुम्हे खबर तो कहना
जहां रख के दिल के सारे .. मैं ख़याल भूल बैठा

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ज़िन्दगी में कई जोड़े थे राब्ते
वक़्त के साथ सारे बदलते गए

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एक चेहरे में छुपे जैसे हज़ारों चेहरे
ज़िन्दगी तू ही बता कैसे यकीं हो तुझ पर..

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देता दिखाई जलवा तेरा शाख-ओ-बर्ग पर
तू ही सबब ख़िज़ाँ का है, तुझसे बहार है..

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कुनबा बना है गिरगिटों को जोड-जाड़ कर।
निकला है शेर आज जो फिर से दहाड़ कर।

बेशर्म हो के आये हैं नेता जी लौट के
जो कल गए थे देश की हालत बिगाड़ कर।

माँगें हिसाब उनसे जो हम साठ साल का
वो चल दिए हैं देखिये हाथों को झाड़ कर।

आएँगे वोट माँगने वो दर पे जब तेरे
रस्ता दिखाना है तुझे उनको लताड़ कर।

बेकार की हैं कसरतें बेकार कशमकश
आएगा आने वाला तो सबको पछाड़ कर।

घुस जाए अपने घर में न ये जंगली भेड़िये
भारत तू राष्ट्रवाद की मजबूत बाड़ कर।

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रवाँ रवाँ है सुब्ह में, ढले हर एक शाम को
लगी मुझे मिज़ाज-ए-आफ़ताब सी है ज़िन्दगी..

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