Jitender Maharshi   (जीत)
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Joined 14 June 2017


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7 JUL AT 10:46

चल करते हैं सौदा,
रखते हैं प्यार को औंधा।

हम तब झगड़ेंगे,
जब बच्चे सोते होंगे।

देंगे उन्हें एक धोखा,
कहेंगे प्रेम नहीं है धोखा।

यह दगा सही है उनके लिए,
जब तक मासूम हैं वो खुद के लिए।

नहीं पड़े मालूम उन्हें कि लड़ते हैं माता पिता,
समझते हैं वे हम प्रतिमूर्ति जैसे राम सीता।

उलझाने को मिलेगा संसार ही उनको,
क्यों हम दें एक अनुचित व्यवहार उनको।

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7 JUL AT 8:29

पुरुषों को बचाना होता है घर,
स्त्री को बनाना होता है घर,
घर बचाने, बनाने की होड में,
बिखरते हैं कुटुंब,
दरकती है चौखट,
टूटते हैं दर।

अलग होता है परिवार,
हारता है पुश्तैनी मकान,
जीत जाता है शान से,
बिना आत्मा का,
किराए का घर।

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15 JUN AT 21:58

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14 FEB AT 20:45

स्नेह सात्विक होता है, उसमें कोई लाग- लपेट, स्वार्थ, लाभ - हानि नहीं होता है।
झूठ है कि विपरीत लिंगी प्रेम सात्विक होता है।
विपरीत लिंगी से प्रेम का एक मुख्य हिस्सा यौन उत्सुकता होती है, जो बाद में अवश्य ही संलिप्तता में परिवर्तित होती है।
बिना यौन के प्रेम की पींग भरने वाले मिथ्या लोग हैं।
और अगर ऐसे लोग हैं, तो वे एक तरह के कलियुगी ब्रह्मचारी हैं जिन्हें उचित अवसर का अभाव है।
वे ना स्नेह कर सकते हैं ना प्रेम।

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14 FEB AT 10:09

मेरा प्रेम मेरे इजहार करने की उत्सुकता के सख्त खिलाफ है,
मेरा प्रेम चाहता है मैं करूं इंतजार अनगिनत जन्म तक तुम्हारे मन में प्रेम प्रस्फुटित होने तक,
उसके बाद का प्रेम होगा अमर जिसे शब्दों की जरूरत नहीं,
जन्मों का इंतजार लाएगा जो प्रेम, वह रह पाएगा अनंत युग युगांतर तक।

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3 FEB AT 13:47

पुरुष नहीं सब पत्थर कह दो, यह भी सह लेंगे वे,

ज्ञात है उनको क्या होगा जीवन भविष्य डटे हुए रह लेंगे वे,

बस उनको दुख हुआ तो सब पास बैठ पूछो क्या हुआ कहो,

जीतेगा समाज ही अगर मिले पुरुषों को रोने का अधिकार सुनो।

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2 FEB AT 13:17

इतनी सारी बातें समरसता की,
इतनी सारी बातें होतीं पितृ सत्ता की,
इतनी बातें लिखीं कि क्या हों अधिकार,
क्या नहीं मंजूर हमें, क्या हो स्वीकार।

संविधानों में लिखी है सूची प्रतिकारों की,
नैतिकता की फौज लिख रही पुस्तकें विकारों की,
जब तब देखो बोल रहा भाईचारा, नारीवाद,
हर दम बातें होती हैं, ना मौन रहो, करो संवाद।

इसके बीच यहां पर किसी के कंधों पर एक जिम्मा है,
देश समाज घर परिवार को आगे लेकर चलना है,
हिस्से कुछ नहीं आया यहां बनते रहे घृणा के पात्र,
लज्जा संवेदना सहानुभूति नहीं, बस दृढ़ता रखते एकमात्र।

पुरुष नहीं सब पत्थर कह दो, यह भी सह लेंगे वे,
ज्ञात है उनको क्या होगा जीवन भविष्य डटे हुए रह लेंगे वे,
बस उनको दुख हुआ तो सब पास बैठ पूछो क्या हुआ कहो,
जीतेगा समाज ही अगर मिले पुरुषों को रोने का अधिकार सुनो।

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1 FEB AT 11:38

मैं चाहता हूं कि मैं तुम्हें सुनूं,
मैं चाहता हूं कि तुम्हें अपने दुख ना कहूं,
मैं चाहता हूं कि बस तुम मेरे दुख में साथ ना दो,
मैं चाहता हूं कि तुम्हें मेरे आगे बढ़ने से जलन ना हो।

इसलिए मैं चाहता हूं कि मैं चाहकर भी
तुमको कुछ ना बताऊं,
बुत बन जाऊं,
सुनता जाऊं।

मालूम है तुम भी मनुष्य हो,
कितने भी तर्क चाहे तुम मुझे दो,
निस्वार्थ प्रेम करने की योग्यता,
केवल मां पिता का ही हिस्सा होता।

बाकी सबका प्रेम,
बस एक किस्सा होता।
किस्सा सुनूं, किस्सा समझूं,
किसी के हिस्से का किस्सा ना बनूं,
अपना किस्सा कहकर।

मैं चाहता हूं कि बस तुम्हें सुनूं।
मौन रहूं ।
शांत रहूं।

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1 FEB AT 6:29

सुबह सुबह की सड़कें,

होती हैं एकदम चुप,

चिड़िया उठने को होती है,

कुत्ते सो चुके होते हैं,

चौपायों की जुगाली भी खत्म,

हल्की मंद हवाओं की आवाज सुन

फिर सड़क भी सो जाती है,

कुछ देर के लिए।

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29 JAN AT 15:57

दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं।

एक जो अपना काम खत्म करके,
खुशी खुशी घर जाते हैं।

दूसरे वो जो अपना काम खत्म करके,
मायूस से अपने मकान जाते हैं।

तीसरे वो जो सही ढंग से कहीं भी नहीं जा पाते हैं,
काम में ही रह जाते हैं।

आप कौनसे हो?

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