तसल्ली से पढ़ा होता तो समझ में आ जाते हम
कुछ पन्ने बिन पढ़े ही पलट दिए होंगे तुमने
सारी ज़िन्दगी रखा रिश्तों का भरम मैंने,
लेकिन सच तो ये है की,
खुद के सिवा यहाँ कोई अपना नहीं
मैं पत्थर हु की मेरे सर पे ये इलज़ाम आता है,
कही भी आइना टूटे, मेरा ही नाम आता है
पेड़ हु, रोज़ गिरते है पत्ते मेरे
फिर भी हवाओं से बदलते नहीं रिश्ते मेरे
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