जिज्ञासु(विष्णु)   (©जिज्ञासु “vishnu”)
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Joined 12 January 2019


Joined 12 January 2019

पतझड़ में
पत्ते कितने नाचते थिरकते अपना जीवन
छोड़ते हैं
जैसे वो इस प्रकृति के प्रथम सूफ़ी हो!

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उसने मुझे गले लगाया और पता नहीं क्या हो गया,
कोई मिला मुझे मां जैसा बस अब मैं बच्चा हो गया।

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रेत के टीलों ने चांदनी की रजाई ओढ़ी है।
जैसे एक पागल दीवाना, अब चैन से सोया है।।

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आज पौष की रात, चौदहवीं का चांद; और तुम!
हाए!किस्मत,हम आज मरे,कल पूनम का चांद।

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इस रोती हुई आंखों से कोई तो मुहब्बत करें,
जर्द गुलाबों से नमक पोछे; हाथों की नमी दे।

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जो भी उसे देखता हैं,हंसता-हंसता रो देता हैं।
खैर!उसे इश्क़ हुआ था, पागल होने से पहले।।

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क्या तुम अब मुझे बरबाद करोगे

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दीवारों से पानी रिसने लग गया।
अब यह घर जर्जर मकान होगा !

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आज तुम जनवरी सी लग रही हो।
अब यह नया साल अच्छा बीतेगा॥

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उसका चलना,पायल का बजना,एक रागमाला है।
अब मैं मंदिर नहीं जाता,अब मेरा घर ही मंदिर है॥

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