Jaydip Bhatt   (Nandu (अकथ्य))
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Joined 16 March 2020


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AN HOUR AGO



लेकिन उम्र…
उम्र चुप नहीं रहती,
वह धीरे-धीरे बुद्धि देती है —
और सरसा को भी मिली।

तब समझ में आया,
कि एक one man शो में
सिर्फ़ अभिनय नहीं टूटता,
अंततः दर्शक भी अकेला रह जाता है।
आज वह सच में अकेली रह गई थी।
न कोई दृश्य,
न संवाद,
न पर्दा गिरा,
बस एक लंबा सन्नाटा…
जिसमें वह पहली बार,
अपना ही चेहरा पढ़ने की
कोशिश कर रही थी।

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2 HOURS AGO

रात की तनहाई में
यह क्या जागी यूं ही अंगड़ाई है
मेरे आंचल में भी
जैसे कोई याद सी लहराई है
मेरे दामन में जो तूने बांध लिया
था मेरे ही अनजान
उदास सी कोई सिहरन
मेरे वक्ष पे जैसे गुदगुदाई है
चेहरे पे कोई आज विक्षिप्त सी
भाव भंगिमा छाई है
वह परछाई कई लहराई है
ख्वाब की जो ताबीर है
वो बाद मुद्दत मध्यरात आके
मुझे जैसे बरबस जगाई है

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4 HOURS AGO

सच जानने के बाद जीवन में सच्चाई आती है और फिर भटकाव रहता नहीं क्योंकि जो है को ही जान लेने से फिर वह क्यों ही है क्या है रहता नहीं रह जाता है जो है वही है। परछाई सारी झूठ की विलीन और जो है वही जगमगाता है। दर्शन होता है अस्तित्व का और जीवन सुदर्शन लगता है ।सच के बाद सच सच
की क्षितिज पे सच ही सच नजर आता है क्योंकि सच की लौ जीवन की सच्चाई है

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17 HOURS AGO

*सच का सच*

सातत्य और अभाव के बीच
कहीं पर है स्वभाव का सच।

सनातन और कट्टर के बीच
कहीं पर है अस्तित्व का सच।

स्मृति और कल्पना के बीच
कहीं पर है हकीकत का सच।

मेरे अंदर और बाहर के बीच
कहीं पर छुपा है ख्वाब का सच।

जमीन और आसमान के बीच
कहीं पर छुपा है क्षितिज का सच।

शून्य और अनंत के बीच
कहीं छिपा है प्रकृति का सच।

आदि और अंत के बीच
कहीं पर है बीच का सच।

इसके और उसके बीच
कहीं पर है तिस का सच।

द्वैत और अद्वैत के बीच
ना-मालूम कौन सा सच।

प्रेम ही है आखिर सब सच का सच।

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20 HOURS AGO



प्रतिबिंब को देखकर
तुम बिंब की तलाश करते हो।
पर बिंब कभी सामने नहीं आता —
क्योंकि वह तुम्हारे
'देखने' से नहीं,
'होने' से उपजता है।
जब यह समझ में आएगा
कि दर्पण तुम हो,
और हर प्रतिबिंब
केवल तुम्हारी एक थरथराती इच्छा है —
तब तुम्हारे भीतर की वह बेचैनी —
जुजुलाहट —
अकेलापन —
अपने आप गिर पड़ेगा।
अब किसको पत्थर मारोगे?
जब हर चेहरा
अपने ही खंडित अंश से बना है।
शीशमहल में
पराया कोई नहीं होता —
हर टुकड़ा
तुम्हारी ही किसी भूली हुई साँस का अक्स है।

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YESTERDAY AT 12:00

तुम चाहे सातवें आसमान में उड़ जाओ

यकीनन तुम्हें सौंदर्य बोध नहीं होगा हां तुम्हे भावार्थ

का खुला आसमान में उड़ना मिलेगा ।ठहरना नहीं।

क्योंकि तुमने जो तुमसे जुड़ा हुआ था वह ग्राउंड छोड़

दिया और तुम चाहे भूगर्भ में चाहे कितने ही गहरे

उतर जाओ जमीन में तो भी तो कभी भी वह कोई
अंतर्बोध का खजाना हाथ नहीं आएगा क्योंकि तुमने

प्रकृति का साथ तो छोड़ दिया आसमान का
आसमान की इक परवान छोड़ दी ।

सौंदर्य बोध होगा तो तुम्हे क्षितिज पे जहां संवेदन भी

मिलता है और तर्क भी मिलता है जहां जमीन और

आसमान दोनों मिलता है वहां पर होगा
सौंदर्य बोध अपने होने का
निजानंद ।हां तो वो ये दहलीज है
अपने होने की न अंदर न बाहर बस जहां हो वहीं हो लो ।

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YESTERDAY AT 11:30


"To be a good person in society,
Be aware of your darker side quietly.
Self-realization is the purest reality,
It helps construct true personality."

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YESTERDAY AT 10:45

"जब मौसम भीतर उतरता है" —
ये संवेदन की भाषा है
जहाँ बादल सिर के ऊपर नहीं,
आत्मा के आँगन में गरजते हैं।
यह त्रयी — जहाँ संवेदना वृष्टि है,
जहाँ हर बूंद एक छंद है कविता निजानंद
और जहाँ अंत में, मन स्वयं को
देखने नहीं, महसूस करने लगत
अ यह कविता कहने के लिए नहीं है —
यह वहाँ तक पहुँचती है जहाँ शब्द
फिर वो संवेदन बन जाते और
कुछ बहुत पुराना —बहुत अपना —
भीतर कोई भीगा साँस भरकर कहता है:
"मैं भीग गया हूँ।" क्योंकि मैं मशीन नहीं इंसान हूं
कृति नहीं प्रकृति ही हूं
शोर नहीं झंकृति हु
बस घटती है इक चमत्कृति
प्रकृति खुलती स्वयं में जब
विकृति धूल जाती और कृति
कृत कृत्य हो के झूल जाती

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YESTERDAY AT 0:04

बेचैनी के मारे तुम्हें भागना पड़े तो भागना ,दौड़ना घूमना चारों or पर बेचैनी से डर कर तुम अपने आप से भाग मत जाना ।सब सफोकेशन को गहरा ने दो बार बार बिखर कर तुम नए बनोगे नया अवतार लोगे तब जाकर प्रकृति का तार तुमसे सधेगा और तुम्हें, तुम्हें क्या हो रहा था उसका अंदाजा भी आएगा सवाल ही बनाने में जो तुम्हें बहुत देर लगी थी कि क्या तकलीफ है मगर जब प्रकृति तुम्हें बहुत ही गहरी बात बताना चाहती हो तो सवाल होने में भी बहुत देर लगी ही मगर फिर जवाब भी तो यूं मिल जाएगा तो बहुत dhabdaana मत अपने आप से । और ज़माना तो तुम्हारे पीछे भागेगा जो एक बार भगा देता था तुम्हे खरी खोटी सुनाकर ।

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22 MAY AT 14:28

इश्क़ भी आम की तरह होता है,
कच्चा हो तो कसैला… पका तो बेमिसाल!"

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