सब छोड़ कहीं दूर निकल जाने को जी चाहता है
डूबते हुए सूरज से मिलने को जी चाहता है
भोर की सुनहरी किरणों को छूने को जी चाहता है
धूल के उन थपेड़ों के साथ चलने को जी चाहता है
स्वावलम्बन की वो चादर ओढ़ने को जी चाहता है
चीखने को जी चाहता है चिल्लाने को जी चाहता है
कभी फ़िर यूं ही फूट फूट कर रोने को जी चाहता है
हाड़ मांस का पुतला नहीं
किसी आत्मा का शरीर होने को जी चाहता है
खेल है क्या स्त्री होना?
कुर्बानियां देकर भी मुस्कुराना जैसे कहां कोई मसला है?
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