Jaya Singh  
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Joined 27 May 2018


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Joined 27 May 2018
28 MAR AT 8:10

जरूरी तो नहीं है कि कोई बात ही चुभे
कभी कभी बात ना होना भी चुभती है
जब कुछ साझा न होके चुप्पी बन जाए
तब ये कही अनकही बहुत खटकती है
मन की मन में रहती है अबोला होकर
अंतस में कहीं कहने की पीड़ा रहती है
उम्मीद रहती है कि कुछ बात होगी पर
सूनी आंखों में अव्यक्तता की सख़्ती है
चुप्पियों का दंश बेहद ही गहरा होता है
वह चोट साझेदारी के मरहम से भरती है
क्यों प्रेम के उजाले अंधेरों में बदल गए हैं
क्यों आत्मीयता... उम्र की तरह घटती है
जरूरी तो नहीं है कि कोई बात ही चुभे
कभी कभी बात ना होना भी चुभती है
~ जया सिंह ~

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10 MAR AT 19:04

स्त्री की व्याख्या,दो पंक्तियों में
ये कैसे संभव है.... ? ?
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जननी हूँ और जीवन भी ,
अक्स हूँ उसका दर्पण भी
कभी भावों से विरक्त हूँ,
कभी प्रेमभरा आलम्बन भी
कभी विशालता की हद हूँ,
कभी लाजभरा संकुचन भी
कोमलता की मिसाल हूँ मैं,
कभी शक्ति का सम्बोधन भी
~ जया सिंह ~





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12 FEB AT 17:49

तेरे अहसास का हर पल शुक्रिया है
इर्दगिर्द तेरी बाहों का घेरा है
तूने बिन छुए मुझे आगोश में लिया है
मैं अकेली कहाँ..तू जो साथ है
हर पल तेरी मौजूदगी में जिया है
एक यही वजह जिंदगी है
वर्ना मुश्किलों ने किस
कदर तोड़ दिया है....
समक्ष हो ना हो पर साथ हो
ये खुदाई रहमत का दरिया है
~ जया सिंह ~

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26 JAN AT 11:17



सुनसान से रस्ते जाने कहाँ
तक जाते हैं ? ?
मेरी मंजिल का पता ये क्यों
नहीं बताते हैं
चल जो दिए हम उनकी राय पर
अकेले अकेले
कहीं किसी मोड़ पर उसको साथ
क्यों नहीं लाते हैं
~ जया सिंह ~

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24 JAN AT 18:51



मख़मली से घावों को भी
अक्सर मरहम पट्टी की दरकार होती है
जो ऊपर से अच्छे दिख रहे
उनमें भी अंदर दर्द की चीत्कार होती है
सौंदर्य हमेशा सुखी नहीं होता
अमूमन खूबसूरती ही शिकार होती है
~ जया सिंह ~

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14 JAN AT 11:21

तुमसे कुछ कहना है
मन में जो भी छुपा है
वो ज़ाहिर करके
तुमको अपना करना है
तुम्हारा थोड़ा वक्त और
थोड़ी चाहत से
मेरे दिल का हर खाली
कोना लबालब भरना है
~ जया सिंह ~


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21 DEC 2024 AT 18:05



अब जब भी छुट्टियों में घर जाती हूँ...
थोड़ा घर बदल जाता है,थोड़ा मैं बदल जाती हूँ।
पिता मुझे कुछ बूढ़े नज़र आते हैं...
मैं उन्हें थोड़ी बड़ी नज़र आती हूँ।
मां कुछ और भोली हो जाती है
मैं खुद को थोड़ा और समझदार पाती हूँ।
चेहरे पर झुर्रियां उनके बढ़ती हैं लेकिन
जिम्मेदारीयों से कंधे मैं अपने झुके पाती हूँ।
अब बातें कम करते हैं वो मुझसे..
क्योंकि अब मैं उनका मौन समझ जाती हूँ।
पहले जब घर से निकलती थी तो हाथ पर पैसे रख
कहते थे खर्चे की चिंता मत करना...
अब यही बात घर छोड़ते वक्त उनसे मैं दोहराती हूँ।
अब जब भी छुट्टियों में घर जाती हूँ तो
मां बाप थोड़े थोड़े औलाद हो जाते हैं...
मैं खुद को थोडा थोडा मां बाप पाती हूँ।
~ जया सिंह ~

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21 NOV 2024 AT 9:24

मेरी मुस्कुराहटें सतरँगी नहीं
श्वेत श्याम ही सही
उनमें देखो कितनी भावनाएं
छुपी है अनकही
चमक के लिए जरूरी नहीं
रंगों की मौजूदगी हो
बस ख़ुशनुमा अनुभूतियों से
सराबोर एक चेहरा हो
जिसकी खुशियों के विस्तार
की हो जवाबदही
बिन कुछ कहे जिसके लबों से
मिठास की लज्जत
माहौल में हर ओर बिखरी रही
~ जया सिंह ~

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19 NOV 2024 AT 8:47

खट्टी-मीठी और सर्द सी जरा
जो तन को छू जाए तो
बदन अनछुई सिहरन से भरा
जब तपन बदल जाये
भीनी ठंडक के अहसास में
तब कुनकुनी धूप का
स्वाद लगने लगे बेहद रसभरा
~ जया सिंह ~




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28 OCT 2024 AT 21:20


उजालों भरी ज़िन्दगी और खुशियाँ भरपूर
दीपावली पर हो जाएं सारे ग़म काफ़ूर
बस रौशनी भर जाए हर अँधियारी राह पर
धन-धान्य सौभाग्य का बन जाये दस्तूर
उजियारा पलों में चमक बिखेरता रहे सदा
मुस्कुराहटों से सजा रहे मन मयूर
~ जया सिंह ~










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