जब भी ख़ुद को व्यक्त किया तब हर बार अपने किरदार को स्वाभिमान से और सशक्त किया शख्सियत जो निर्माण की धुरी है उसके खोल का मरम्मत किया अपनी ताकत व हिम्मत को बढ़ाकर अपनी छवि को और उन्नत किया ~ जया सिंह ~
सुनहरे ख्वाब सी जो छम से आ जाओ तुम ज़िन्दगी को किरणों सा उजला बना जाओ तुम तेरी नज़रों की आस में सूर्य भी धुरी पर टिका है उसे हामी दे आसमां की बादशाहत दिलाओ तुम फीके से माहौल में थोड़ा सा और रंग छिड़ककर नारंगी पीला बनाओ तुम ~जया सिंह~
हर माता पिता का फ़र्ज़ है इस कर्तव्य को निभाना क्यों बाध्यताओं से भरा मर्ज़ है... इस बाध्यता में प्रेम सर्वोपरि है तो क्यूँ संतान को ये निश्छल भावना स्वीकारने में हर्ज़ है... त्याग और तपस्या से किया हर एक कर्म फ़िर क्यों नहीं उन पर जन्मदाता का कर्ज़ है
हर माता पिता का फ़र्ज़ है इस कर्तव्य को निभाना क्यों बाध्यताओं से भरा मर्ज़ है... इस बाध्यता में प्रेम सर्वोपरि है तो क्यूँ संतान को ये निश्छल भावना स्वीकारने में हर्ज़ है... त्याग और तपस्या से किया हर एक कर्म फ़िर क्यों नहीं उन पर जन्मदाता का कर्ज़ है
कुछ अनकहा छोड़ देते हैं व्यक्त किये जाने वाले तथ्य को रहस्यात्मक मोड़ देते हैं स्थितियाँ बेवजह जटिल सी होकर उलझती रहती हैं.. कुछ सोच जो आशंकाएँ है उन्हें सत्य से जोड़ देते हैं..!!
कोई तो वजह होगी ज़रूर खुशियों की पनाह में खिलखिलाहटें होगी भरपूर या ख़ुदा तू चला दे अब कोई इक ऐसा दस्तूर जहाँ दुःख, तकलीफ़ खुद ब खुद हो जाए काफ़ूर ~ जया सिंह ~
सूनी सी आँखें बस इक यही बात सोचती हैं कैसे उनका झपकने का सुकूँ खोया और वो क्यूँ वक्त का ज़िस्म तीखी नज़रों से खरोंचती हैं कोई तो पीड़ा इन्हें भावविहीन कर गईं जिससे वो नींदों से महरूम होने की वजह खोजती हैं ~ जया सिंह ~
मेरी उड़ान को आज यह तोहफ़ा मिला.. पिंजरा व झरोखा दोनों का नफा मिला ! अब दरवाज़े मेरे लिए खुला आकाश है.. ईनाम में लहराते पंखों का मुनाफ़ा मिला ! मेरी दुनिया अब कितनी सुंदर हो गई है... कैद की कालिमा का हर दाग सफ़ा मिला! ~ जया सिंह ~
मेरी सुबह का सूरज कुछ ऐसे ही ,मेरी मन की धरा पर चमकता है उसके अक्स के उजियारे से मेरे अंतस का हरेक कोना दमकता है मैं उजली सुबहों की मुरीद हूँ...जगमगाती हुई किरणें यह जानती हैं तभी नित भोर मेरा मन इस लालिमा को ओढ़ लेने को बहकता है ~ जया सिंह ~
जो सभी तरफ़ से आकर मुझे हर पल भरमाती हैं सिर्फ खुद को ही सुनने के वास्ते जोर लगाती हैं मैं दिशाहीन सी शोर की भीड़ में भटकती रहती हूं मनस को संभालना होगा ये ध्वनियाँ बड़ी उत्पाती हैं ~ जया सिंह ~