दश्त ए तन्हाई में अक्सर
ये तसव्वुर करता हूँ
तुम हो,सर्दियां हो,अलाव हो
और तुम्हे सिर्फ हमीं से लगाव हो-
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जो प्रेमी बिना किसी अभिलाषा के प्रेम करते है जिन्हें मालूम होता है उनका मिलन हो ना हो विरह काल खत्म नही होगा किन्तु फिर भी प्रेंम करते है वही आगे चल कर प्रेम में बुद्ध बनते है
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प्रेम को चुप्पी पसन्द है
बड़े से बड़ा उद्दंडी भी प्रेम में पड़ कर चुप हो जाता है
प्रेम अंततः चुप रहना सिखा ही देता है-
प्रतिदिन एक ही स्वप्न आता है मुझे की तुम पहाड़ की चोटी से गिर रही हो और में तुम्हे बचाने के लिए अपनी बाहें फैला रहा हूँ और नींद से उठ बाहें फैला देता हूं किसी बेबस के आगे जब से तुम गयी हो हर जगह बस गयी हो
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बेवफाये चैन से सोया करेंगी अब.अभी-अभी
आशिकों की बस्ती में आग लगा कर आया हूँ-
जब तुम अंतिम बार मुझसे मिलने आओगी मैं चुमूँगा तुम्हे और वो चुम्बन इतना आत्मीय होगा कि उभर आएगा तुम्हारे माथे पर एक तिल जो युगान्त तक वही रहेगा हमारे प्रेम की निशानी बन कर प्रतिदिन जब तुम दर्पण में देखोगी तो तुम्हे मेरी याद दिलायेगा और जब-जब तुम बिंदी लगाओगी वो बिंदी मेरे प्रेम की नींव पर समर्पित होगी
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मैं सम्पूर्ण जीवन गुजार सकता हूँ केवल इस बात को याद करके की कभी तुमने मुझसे प्रेम किया था,मुझे स्पर्श किया था,और बिछड़ते समय तुम्हारी आँखों मे आँसू थे
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