देखकर नूर-ए-आफताब आज ऐसा लगा,
मुद्दतों बाद तुमसे निगाहें मिली हो जैसे।-
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करते हो प्रेमपूर्ण लीला तुम तो सदैव वृंदावन में,
कभी महारास को आन पधारो मोहन मेरे मन आंगन में।
लख पीतांबर की पीत छटा, दृग तृप्त मेरे हों हे प्रियतम ,
वेणु धुन पर मैं नाच उठूं, रोम-रोम हो प्रेम मगन।
क्षण मात्र को भी तब विरह न हो,तुमको पाऊं मैं कण-कण में।
कभी महारास को आन पधारो मोहन मेरे मन आंगन में।
बंसीवट की छांह शीतल,
स्वर कालिंदी का हो कल-कल,
तुम छेड़ो, हो मेरा चित्त चपल,
पग थिरकें किंतु हो दृष्टि अटल।
मैं बैठ तुम्हें ही निहारा करूं, तुम ही तुम हो इन नैनन में।
कभी महारास को आन पधारो मोहन मेरे मन आंगन में।
मैं बिसरूं जग के काम-काज,
मैं छोड़ चलूं सब लोक लाज,
वश करे मुझे तेरा प्रेम पाश,
गिरधर मेरी बस यही आस।
इस शरद् पूर्णिमा की रात्रि,'श्री' बंधे प्रेम आलिंगन में।
कभी महारास को आन पधारो मोहन मेरे मन आंगन में।
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बचा कर चलते हैं दामन को इस दौर में ,
खौफ अब अंधेरों से नहीं, चरागों से है।-
मेरा वादा है मेरी मुहब्बत कम न होगी,
हाँ मगर अब ये मेरी आँखें नम न होंगी।
मैं तुझसे दूर रहकर अपनी मुहब्बत निभा लूंगी,
मगर अब ये पगली तेरी हमकदम न होगी।
यूं तो तेरे दामन में होंगी बहारें सारे कायनात की,
मगर तेरी बज्म में मेरी आहट भी मेरे सनम न होंगी।
दर्द के सन्नाटे न होंगे,होगा अना से मेरा वास्ता,
तेरे कूचे में मेरी खुशबु भी तेरी कसम न होगी।
गुजर चला वो दौर बेरुखी और रुसवाईयों का,
बस के अब मुहब्बत सरेआम बेभरम न होगी।
-Jaishree Thakur
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उस तरफ दिल्लगी रही,यहाँ दीवानगी रही,
इक बेचारे दिल की क्या क्या बेचारगी रही।
वो अलहदा अलमस्त कहीं बरसता ही रहा,
यहाँ इक दरिया के लबों पर मगर तिश्नगी रही।
हम उसे देखते रहे,वो कहीं देखता रहा,
आतिश-ए-इश्क थी जनाब,बुझकर लगी रही।-
रंग हजारों चाहे जमाना बदलता रहे,
अपने अल्फाजों का खूबसूरत सफर यूं ही चलता रहे।
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तेरी यादों के लंबे काफिलों संग जारी है मेरा सफर,
तूने तनहा छोड़ा है मुझे इस बात का गम न कर ।-
आहिस्ता आहिस्ता सारे बदल गए रिश्ते,
बनकर रेत हाथों से फिसल गए रिश्ते ।
भरने चले थे जख्म जो मरहम बनकर,
कि बनकर खंजर सीने पे चल गए रिश्ते ।
थे कभी सुबह की सुनहरी धूप की माफिक,
कि ढलती शाम के संग खुद भी ढल गए रिश्ते ।
वो आग हाथ सेंकने को जो लगाई थी,
घर जला और कूद उसमें जल गए रिश्ते ।
ताज्जुब है जहाँ बातें थी बेफिक्री की,
वहाँ क्यूँ होकर गुमसुम संभल गए रिश्ते ।
था साथ सुबह-शाम-रात और दुपहरी का,
आज पलभर के साथ को मचल गए रिश्ते ।
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अजीब दौर से गुजर रही जिंदगानी,
लोग हंसकर छुपाते हैं आंखों का पानी ।
कभी था बसेरा जिन ख्वाबों में अपना,
है यादों में अब उन परियों की कहानी ।
वो रोना मचलना या जोरों से हंसना,
कहाँ था वो बचपन,कहाँ ये जवानी ।
वो बातें मस्त हवा से,वो चलना अदा से,
वो बेबाक सुबहें, और वो शामें सुहानी ।
खलिश सी है दिल में, कसक सी दबी है,
कि फिर से मुझे है वो बस्ती बसानी।-
ताब-ए-दीद की आदत न पूछिये जनाब,
वो सामने बैठे थे और हम वस्ल को नासबूर रहे।-