छीजते शब्दों की परछाइयाँ देखो,
वो अब भी किसी दीवार पर सवाल टाँकती हैं।
जिन्हें लोग भूल गए हैं बोलना,
उनके हिस्से को भी कविता अब जिंदा रखती है।
कविता ज़रूरी है —
इसलिए नहीं कि छापी जाए,
या तालियाँ बटोरी जाएं।
इसलिए कि जब कुछ कहना नामुमकिन हो,
तब कुछ लिख पाना ज़रूरी हो जाता है।
पर हाँ —
ऐसे नहीं कि जैसे नजराने रखे जाते हैं,
ना ही ऐसे कि हर मिसरा बस तुकबंदी में बिक जाए।
कविता वो हो,
जो अंदर कुछ तोड़ दे,
या जोड़ दे —
पर गुजर जाए,
एक आंधी की तरह...
बिना आहट के।-
ऊन ओल्या दगडी साऱ्या
किती ह्या वाटा रोज दिसे
पर्व उठले संथ रडूनी
चार नेत्र जर का उठे..!
खेळ सारा या नभीचा
चंद्र सूर्या तोच रचे...
निराकार की गोलाकार
अंत आरंभ एक दिसे!
भट्ट बोले गोल हे सार
तर सारे एक कसे...
ओलांडून तो एक अंत
आरंभ तर शुन्य असे!
ज्ञात अज्ञात आपण कोण ?
विचार सारे अंत भुके
सर्व चक्रांनी मिळून मी
कधी चाले कधी चुके !
मी मन आहे खगप्राणी
काल माझा कर्म धार
जागृती मज शीर्ष भेट
शब्द माझे काव्य सार!-
तुम अंत कहो और मैं हो जाऊँ,
किसी साहित्य के इक हिस्से का
तुम कहो तो आरंभ बन जाऊँ,
शेष रखी उस सभ्यता का
किसी पूर्ण से अब मोक्ष ले आऊँ,
सुकून तो बस समझ में है!!
तुम पढ़ो कभी फुर्सत में हमें,
और सुकून को इससे आगे क्या लिखूँ?-
कधी वाटते मज क्षणिक क्षण हे
ओठून वाहे जसे निरंतर मन हे
येता....जाता.. कोठे विसावे !?
काळ माणसांत उभे पुरे घन हे..
शब्दांपरी आज डोळे पहावे
वाटे मज पर सांडते व्रण हे..
पडीक सुखांना कोणी पुसावे
चार पावसातच ओलांडते जन हे
उभारल्या काठी ज्या हाथापाया
रातीत त्यांना मोडेल पण हे-
बीते सारे वो कॅलेंडर इक आज को खत्म करते करते
मरे हजारो उसके जैसे पर मरा न सिर्फ वो इक आज-
कागज कलम कविता ग्रंथ सब कम ही रहेगा बाबूजी
उसकी उपमा में उसी को लिखो तो सही रहेगा बाबूजी-
कहो उगाऊँ मैं सूरज को रात में
मेरी छत का चाँद सो रहा है अभी
इन होंठों को भी आज सुनने दो
कानों को होने दो गुलाबी गुलाबी
कहो घुमाऊँ सारे रास्ते तेरे घर
ख़्वाहिश तुम्हारी, तुम निकालो ज़रा भी
तुम कहो बादलों को बिछा दूँ
ये रही आसमानों की चाबी-
वे पेड़, पक्षी और इंसान आकाश को छूने की कोशिश कर रहे थे—
और धरती अंत में भी उन्हें अपनी गोद में समेट रही थी, जिसे वे जीवनभर कुचलते रहे!-
आते नहीं शब्द छूटे हुए एक बार,
गर मार पाओ हवाओं को तो लौट आना।
मैं करूंगी याद एक-एक अक्षर के टूटने की,
तुम उन्हें जोड़ते हुए वापस लौट आना।
हर फटता पन्ना गर अंधेरा लाता है,
तुम वो आधा चाँद बन के लौट आना।
मिलावट से दूर शुद्ध गज़ल लिखूंगी,
तुम बस उसका शीर्षक बन के लौट आना।
पूरी कहानी सौंप दूँ तुम्हें गर चाहो,
बस तुम उसका अंत बन के लौट आना।-