जनाब, एक रोज़ पूंछा किसी ने हमसे,
सही मायने में शादी का सही अर्थ है क्या
हम तनिक सकुचाए और मुस्कुराए फिर कहा
समझौतों संग स्वयं के हाथों स्वयं का आत्मदाह है
और भी सरल भाषा में हो अगर बताना
तो स्वयं के भीतर ही स्वयं को दफनाना
ज़िंदा होकर स्वयं को एक लाश बनाना
छुपाकर कब्र अपने ही टूटे अरमानों की
दांत दिखाकर बस हंसना और मुस्कुराना
यही है सही मायने में जनाब शादी निभाना-
धर अधर पर मौन, झुके झपकते सजल दृगों से प्रिय,
निज हृदय में उपजे भावों का मैं,अवर्णित उद्गार कहूँगी।
बूँद बूँद हो जाऊं समाहित तुममें,बन निर्झर अनुराग प्रिय
नव किसलय सा जीवन का तुम्हारे सुभग शृंगार करूँगी।
न होने दूंगी रिक्त कभी भी, मैं ये प्रणय गागर प्रिय,
हर लूंगी पीड़ा सारी, संतापों का भी तुम्हारे,मैं भार सहूँगी।
कर आलिंगित रूह को, मैं रोम रोम में नेह संचार करूँगी।
हो नतशीष संग तुम्हारे प्रिय ,मैं तुम्हें निज आधार कहूँगी।
स्वीकार समर्पण नेह ,समग्र अभिलाषाएं तुम्हारी मैं पूर्ण करूँगी।
रहूँगी सदा तुम्हारी प्रिय,तुम बिन स्वयं को मैं अपूर्ण कहूँगी।
बन सागर सा अथाह ,मैं कर समाहित तुम में स्वयं को प्रिय,
मैं विलक्षण विशुद्ध प्रेम का, अनंत अपरिमित विस्तार बनूँगी।
ढूँढ किनारा मंज़िल का ,स्वप्नों की तुम्हारे मैं पतवार बनूँगी।
जो हो संग तुम कर्मपथ पर ,स्वयं को मैं बेहद खुशगवार कहूँगी।
लेती हूँ मैं वचन आज, नीर विश्वास का न कभी खारा करूँगी।
बन पर्याय एक दूजे का,जग में पूरकता का मैं परिवेश बनूँगी।
ना होगी शेष फिर कोई अभिलाषा, मैं अद्वैत प्रेम अशेष बनूँगी।
तुम बन जाना काव्य मेरा, मैं बन अदृश्य भाव तुम में सदा रहूँगी।
कर समाहित स्वयं को तुममें ,कर अलंकृत तुम्हें नित नवोन्मेष करूँगी।
प्रिय मैं सदा से तुम्हारी थी तुम्हारी हूँ, सदा सदा तुम्हारी ही रहूँगी।
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शायद मुझे परेशान करना ,ऐ ज़िंदगी अब तेरी फ़ितरत हो गईं
यही वजह है ज़िंदगी कि आज मुझे जीने से ही नफ़रत हो गई-
माँ ने कहा जा बेटा, जा अपने घर ,
पर कैसे कह दूं मैं उसे अपना घर
जहां हर काम में हर समय,हरेक को
आई मुझमें सिर्फ़ कमियां ही नज़र-
फूल थी कल तक ,आज हाथ काटने वाली मैं छुरी हो गई हूँ
यूं लगता है मानो सभी समस्याओं की जैसे ,मैं ही धुरी हो गई हूँ
गैरों की क्या कहूं अपनों में भी,आँखों की मैं किरकिरी हो गई हूँ
यकीं नहीं होता है, क्या सच में?, मैं आज इतनी बुरी हो गई हूँ?-
नसीब में किसके क्या लिखा है,भला यहाँ है किसे पता!
कर्मचक्र ही है विजेता यहाँ,माटी के पुतले की नहीं कोई खता!-
जाग रही हूँ पर, जैसे सो सी गई हूँ मैं
ख़ुद में ही आज कहीं खो सी गई हूँ मैं
अब यकीन नहीं होता ए जिंदगी तुझ पर,
खुश भी हूँ या दुखी ख़ुद से ही हो गई हूँ मैं-
ज़िंदगी मेरी ये क्या से क्या हो गई
थी क्या मैं?,और अब क्या हो गई
जीवन के मेले में खोकर स्वयं को,
स्वयं के भीतर ही कहीं ,मैं सो गई-
एक अरसा हुआ मिले ख़ुद से,पता ख़ुद का मैं ख़ुद को ही बताती नहीं
सच कहूं तो हाँ मैं हँसती बहुत हूँ,पर अब पहले सी मैं मुस्कुराती नहीं
खो गई हूँ मैं ख़ुद में ही, रहकर खुद में ही,मैं अब ख़ुद से ही टकराती नहीं
आलम ये है जनाब कि तस्वीर मेरी, अक्स मेरा ही मुझे अब दिखाती नहीं
यूँ तो ढूंढ़ लेती हूँ हकीकत ज़माने की,पर खुद में खुद को मैं अब ढूंढ पाती नहीं
धुंधला सी गई है शख्शियत मेरी, मैं मुझमें और मुझमें मैं नज़र अब आती नहीं-
नदारद थी कभी जिन होंठों से हँसी आँखों से खुशी, बेवजह होंठ वो मुस्कुराने लगे है!
छोड़कर कौने और सरगम किताबी, खुली हवा में तराने मोहब्बत के गुनगुनाने लगे है!
रहते थे जो कभी खुद में ही गुमनाम,आज आईना अपना हम आपको बताने लगे हैं!
जगाने लगे हैं अक्सर रातों में खुद को, ख्यालों में आपके दिन भी अब बिताने लगे हैं!
था नदारद कभी जिस चेहरे से शृंगार,आज संवारने में ख़ुद को घंटो हम लगाने लगे हैं!
बेपरवाह बेबाक बेहया से हम, आज आहिस्ता आहिस्ता नज़रें हया में झुकाने लगे हैं!
दूर रहकर न रही दरमियां दूरी,हर रोज़, रोज़ रोज़ करीब थोड़ा थोड़ा आप आने लगे हैं!
अंजान से हो गए आप जान हमारी,हम आपको आज, कल से भी ज्यादा चाहने लगे हैं!-