Jagjeet Singh Jaggi   (Jaggi.....(ख़्वाबगाह ))
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Joined 9 June 2017


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10 JAN 2022 AT 22:43

ख्वाहिशों में उनकी बस तक गए हैं,
देखो इश्क़ में हम कहाँ तक गए हैं,

अंधेरों में जलते दिए से है वो अब,
हम पतंगों के जैसे शमा तक गए हैं,

बिखरा पड़ा था मैं कब से जहां में,
थामा हाथ उनका खुदा तक गए हैं,

ये नज़रे हमारी टिकी हैं उन्हीं पे,
वो नज़रों को लेकर हया तक गए हैं,

लगाया गले से इस कदर उनने हमको,
हम मर के भी देखो यहां तक गए हैं,

'जग्गी' कह दें उन्हें अब के सांसें हैं मेरी,
वो नज़रों से होकर गुमाँ तक गए हैं

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21 DEC 2021 AT 21:31

लिखने वाले मेरे एहसान तले दबे हैं आज!
जो मैं ना जाता तो क्या लिखते रुसवाई पर ये!!

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18 NOV 2021 AT 0:04

आना है तेरे दर पे फिर एक बार मुझे,
ऐ यार, फ़िर दिला दे वो संसार मुझे,

आकर पहली बार यूँ मिली थी शिफा वहाँ,
कैसे करूँ याद करने से इंकार तुझे,

मैं राहों में भटकता इक मुसाफ़िर था कभी,
तूने दिया सर पर छत, घर बार मुझे,

मैं सूखी रेत का दहकता दरिया गुमशुदगी में,
तूने दिया माँ का आंचल और प्यार मुझे,

जब आता है ख़ुलूस से ख्याल तेरी मुस्कुराहट का,
कैसे रोक कर रखूं यादों के उस पर तुझे,

माँ, बहन, इक दोस्त, सब रिश्ते हैं तेरे साथ,
तू ही बता कैसे भुला दूँ ऐ यार तुझे...

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5 NOV 2021 AT 22:53

ये गुमनाम सा शोर है गलियों में ठहरा,
सुनो सन्नाटा यहां का, कहें तो दिवाली है..

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27 OCT 2021 AT 23:46

हर दर्द की मैं दवा लिए फिरता हूँ,
मुट्ठी में थोड़ा आसमां लिए फिरता हूँ,
सीने में दफ़्न हैं कई राज़ खिज़ा के,
मुस्कुराता हुआ जो समा लिए फिरता हूँ,
सोचता रहता हूं उस जहां की जो मिला नहीं,
खुद में जो खोया रहूँ वो जहां लिए फिरता हूँ,
अज़ाब खूं बहाते हैं रात दिन कुछ इस तरह,
जो रखे सुखा के लहू, वो मशविरा लिए फिरता हूँ,
सुखनवर शेरों में उतारे शक़्ल उसकी मेरे लिए "जग्गी",
हो ऐसा कमाल, वो जमाल-ए-फिज़ा लिए फिरता हूँ,

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1 OCT 2021 AT 0:34

क्यों बग़ावत खुद से इस बार करने लगे हैं,
जो चला गया उसका इंतज़ार करने लगे हैं,
बूँदों में सूखापन सा ढूंढने लगे हैं अब हम,
यूँ बारिशों को भी बेज़ार करने लगे हैं,
लगता नहीं दिल उनके बिना, क्या करें,
खालीपन को इख़्तियार करने लगे हैं,
ख्वाहिशें, ख्याल, दर्द, मुस्कराहट, सब उनसे था,
अब ये ख़्वाब उनका नज़रों के पार करने लगे हैं,

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29 SEP 2021 AT 22:32

इंतज़ार-ए-हक़ मेरे हक़ में क्यों नहीं,
वो मेरे अन्दर ही अन्दर गहराता जा रहा है

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25 SEP 2021 AT 21:29

क्यों आज हमको यूँ गुमान हो रहे हैं,
जो शैतान भी न हो सके वो भगवान हो रहे हैं..
वादा खिलाफी का दौर है, सम्हल कर चल ऐ अदम,
वो मौत के शिकंजे में राहत-ए-जान हो रहे हैं,
कभी हवाओं में महक लेकर आते हैं इश्क़ की,
कभी खुद के घर में ही मेहमान हो रहे हैं,
रोने वाले को अकेला छोड़ जाते हैं अक्सर,
वो जो हमदर्द हैं अपने, गुर्बत का मकान हो रहे हैं.,
अफ़साना हुस्न-ए-बे-इन्तेहा का सुनाया क्या जाए,
कत्ल करके वो हमारी ही जान के निगहबान हो रहे हैं,

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11 SEP 2021 AT 22:20

सिलवटें पड़ी हैं माथे पर, आंखों में छिपी सी मुस्कुराहट भी है,
उनके रूठने के अंदाज़ में भी इक कशिश मिलती है हमें,,,,

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10 SEP 2021 AT 22:44

बस गया उनका असर कुछ इस कदर ज़हन में हमारे,
अश्क भर के देखें तो तस्वीरें सुनाई पड़ती हैं उनकी

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