"मैं" से आती है मां,
जो लगती तो है माया
पर हैं असल में वो ब्रम्ह की छाया।
जन्म देती हैं वो देह,
देह से वो बना सकती है योद्धा,
मांगों तो दे भी सकती हैं वो चेतना रूपी श्रद्धा।
लिंग भेद में उसे बांटते हैं,
माया माया बोलकर स्त्री पुरुष के खेल में फसते हैं,
पर मां असल में लिंग से परे हैं।
आग में वो जलती है,
सत्य,धर्म की युद्ध वो लढ़ती हैं,
करुणा,प्रेम की तिरंगा वो फैलाती है।।
अंधकार को वो हुंकारती है,
काट राक्षस की सिर, बनती हैं वो प्रेम की दाता
जिन्हें स्नेह से कहते हैं जन्म दायिनी माता।।
मां हैं सृष्टि चक्र की माली,
काल में है वो महाकाली,
अनंत धार की हैं वो बहती नदी,
ब्रम्ह में स्थित, हैं वो ब्रम्ह की प्रतिनिधि।।
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