हे आर्यवर्त के वीर उठो
इस देवरज के ऋणी उठो !
सुनो तुम्हारी धरा बिलखती डरी हुई सी रातों में।
उज्जवल भविष्य दिखला दो पड़े कटाक्ष अब हाथो पे।
भूमि का गौरव डोल रहा, हुंकार ज़रा दिखलाओ तुम
देखो सहष्णुता का गहना, ग्रहण अब लगाकर आया है,
चंद्रमा आज फिर अभिमानी ठहाके लगाकर आया है।
भालचंद्र बनकर कलंक अब उसके बतलाओ तुम।
रक्त से न डरने वाले ,जो संघारक रक्तबीज की ,
काली महाकपाली की संतान उठो!
महिषासुर का मर्दन करने वाली दुर्गा के बाण उठो!
सुनो पिनाकी वीरभद्र का तांडव रचने वाला है,
कलियुग में तो विघ्नेश्वर भी ' धूम्रकेतु ' बनने वाला है।
इस आतंक के कलिपुरुष को कल्कि बनकर मारो तुम।
पड़े शिथिल रहने वालों! परिहार्य यदि धर्मयुद्ध होता,
वो बंसीवाला महाभारत कभी नही होने देता
आर्यवर्त की देवधरा पर ,ऐसे रक्त नहीं बहने देता!
शांतिविचार का दुष्टों को ,तनिक भी कुछ फल होता
मर्यादा को रखनेवाला राम दशानन नहीं मरने देता
देख सनातन इतिहास तुम्हारा, अब युद्ध से मत भागो तुम।
हे आर्यवत के वीर उठो
देव रज के ऋणी उठो!
-