मानो मिल आए अजनबी से हम
जब मिले आज ज़िंदगी से हम
क़र्ज़ लेते नहीं किसी से हम
ख़ौफ़ खाते हैं ख़ुदकुशी से हम
दे सकेंगे फ़क़त उदासी ही
वो भी देंगे नहीं ख़ुशी से हम
एक हसरत रही हमेशा से
तंग आए न शायरी से हम
इस अँधेरे से लड़ना तो होगा
हों भले दूर रौशनी से हम
आप जब पैदा भी नहीं हुए थे
शायरी करते थे तभी से हम-
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◾️ 𝗩𝗶𝘀𝗶𝘁 𝗺𝘆 𝗯... read more
चंद लफ़्ज़ों की ही कहानी थी
मेरे लहजे में इक रवानी थी
तुम ग़ज़ल सुन के चल पड़ी किस ओर
मुझको इक नज़्म भी सुनानी थी
जिस्म को राख करके क्या मिलता
अस्थियाँ रूह की बहानी थी
जिस दरीचे से आता है साया
उस दरीचे से धूप आनी थी
तन्हा तो इतना थे कि मत पूछो
अपनी अर्थी भी ख़ुद उठानी थी
साए थे ज़िंदगी के हम सब, और
एक दिन रौशनी तो जानी थी
ख़बरें ज़हरीली बिकती थीं सो मुझे
शायरी से दवा बनानी थी-
तुमसे मिलने पे कम हुआ है ग़म
और अब ख़ुद ही ग़म-ज़दा है ग़म
हम-नवा जैसे क्यों नहीं हो तुम
ऐसा ख़ुशियों से पूछता है ग़म
फैला दे तीरगी दिलों में ये
इक अजब सा कोई दिया है ग़म
अपने दिल से निकाला क्या इसको
देखो रस्ते पे आ गया है ग़म
आँख भर के मैं जब भी देखूँ इसे
खिलखिलाते हुए दिखा है ग़म
आइने से मुझे मिटाता रहा
मेरी आँखों में जो छुपा है ग़म
टूटा दिल वो दरीचा है जिससे
आदतन रोज़ झाँकता है ग़म-
सामने उनके सर झुकाएँ हम
वो हैं तूफ़ान और हवाएँ हम
तन्हा रातों में अश्क बहते रहे
तुमको देते रहे सदाएँ हम
दे दिया आपको क़फ़स बना के
अब परिंदा कहाँ से लाएँ हम
इक शिगूफ़ा दिखा था रास्ते में
क्यों हवा को ये सब बताएँ हम
ख़्वाब में आए थे मेरे माँ-बाप
पूछे दुख तेरे लेके जाएँ हम ?-
क्यों लबों पे तिरी 'नहीं' 'नहीं' है
तुझको क्या ख़ुद पे भी यकीं नहीं है
मेरी तक़दीर हम-नशीं नहीं है
दूसरा चारा भी कहीं नहीं है
देखते हो हज़ार बार उसे
और कहते हो वो हसीं नहीं है
कर न पातीं वसूली यादें तेरी
वो तो दिल का कोई मकीं नहीं है
मेरे इन रत्ब होठों के नीचे
क्यों तिरी ख़ुश्क सी जबीं नहीं है
दिल है इक ऐसा आसमाँ ‘अबतर’
जिसके नीचे कोई ज़मीं नहीं है-
कितनी ज़िया तारीकी में लाते थे पिता जी
और अज़्म ये हर रोज़ दिखाते थे पिता जी
कुछ ऐसे भी दिल मेरा दुखाते थे पिता जी
दुख बाँटने अपना नहीं आते थे पिता जी
मालूम है अब, एक भला बेटा बनाके
इक अच्छा पिता मुझको बनाते थे पिता जी
मैं मुरझा भी जाऊँ तो खिला दे मुझे यक-दम
वो कैसी हवा थी जो चलाते थे पिता जी
मैं आग लगाके चिता पे उनसे ये बोला
"पर आप तो हर आग बुझाते थे पिता जी"
थोड़ा सा गँवाता था उन्हें रोज़ मैं 'अबतर'
और रोज़ मुझे थोड़ा गँवाते थे पिता जी-
जंग में बच न पाया सर मेरा
ख़ुल्द में बन गया है घर मेरा
क्या नफ़ा और क्या ज़रर मेरा
है न जब कोई हम-सफ़र मेरा
ख़ौफ़ में भी जमाल है मेरे
हौसला हो तो परखो डर मेरा
उसने आँखें टिका के क्या देखीं
हो गया दिल इधर-उधर मेरा
उसको मेरी ग़ज़ल पसंद आई
और लहजा तो ख़ास कर मेरा
आज तक मिल सके न ये दोनों
बाप का कंधा और सर मेरा
मेरे यारो मुझे इजाज़त दो
इतना ही था यहाँ सफ़र मेरा-
बीती यादों के शिकंजे में समाँ गर आपका है
काटिए ये जाल और सारा समुन्दर आपका है
आपको क्या लगता है दिल में मेरे है कोई क़स्बा
मेरे दिल में इक ही घर है और वो घर आपका है
और थोड़ा जान लीजे हिज्र के बारे में मुझसे
मैं तो कर लूँगा ये दरिया पार बस डर आपका है
मैं अगर एहसाँ चुका दूँ तो मेरा एहसान होगा
इक अजब सा ऐसा एहसाँ मेरे सर पर आपका है
रोल नंबर दे रही थी ज़िंदगी जब मौत का कल
पास आके मुझसे बोली पहला नंबर आपका है
और कोई कितनी भी कर ले अयादत मेरी लेकिन
जब तलक चलती रहेंगी साँसें 'अबतर' आपका है-