मैं ढूंढ रही जो वजह वो कहता कहां कोई,
दर्द सामने वाले का समझता कहां कोई,
बातों में उलझा, लोग कहते नहीं जो कर जाते हैं,
सामने से तारीफ कर पीछे छल जाते हैं।
वो कब तक संभाल पाएगी अपने मासूम मन को,
कैसे यकीन कर पाएगी किसी और का कहा, कल को।
और अगर यकीन कर भी ले वो तो,
ख़ुद को कैसे सही बता पाएगी, अपनी सच्चाई कैसे समझा पाएगी
क्यों लग कर भी वो अच्छी उनको अच्छी नहीं लगती,
रुआंसी आँखें भी उसकी उनको सच्ची नहीं लगती।
उसकी हर बात पर ये ‘संदेह’ क्यों उनको रह जाता,
भरोसे की साजिशो में ये दिल उनका क्यों फस जाता।
क्या मिलता लोगों को किसी को इस क़दर बदनाम करके,
हर मोड़ पे अपने सही होने का सबूत देना पड़े इस कदर जिंदगी तबाह करके।
मैं ढूंढ रही जो जबाब वो कहता कहां कोई,
दर्द सामने वाले का समझता कहां कोई।।
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