है ख़यालों से खिलता तो कोना-कोना कमरे का
जिनके भी हिस्से में मैं कलंक बनाया जाता हूँ-
लिखना अच्छा लगता है तो बस लिखता हूँ ।
मुझसे ना पूछ दोस्त, मेरे घर का पता
दरों-दीवार के सिवा है कुछ भी नहीं-
संग कदमों से उसके जिस और ज़हां था मैं
इससे पहले कि आफ़ाक़ में ही कहां था मैं
लफ्ज़ों में तोहमतें लिये अब्सारों से करते बैर
हर डर , हर शहर कुछ इतना ग़म-कशां था मैं
फ़ुर्क़तें-उल्फ़तें , गमों से कश्मकश होते रहे
हिज़्र में उसके अंदर ही अंदर बयाबां था मैं
कैफ़ियत का सबब , बेसबब ही ढलते रहें
रिफ़ाक़त में हो शामिल खुद से इब्तीदा था मैं
ना मालूम हक़ीक़त ना मनगढ़ंत चाहा उसे
अहल-ए-वफ़ा के सफ़ में बा-वफ़ा था मैं
ना ख़ाहिश महफ़िलों की ना दौर हुआ हमारा
ज़मीं से आसमां तक मुकम्मल दास्तां था मैं
चलते रहें क़ुर्बत लिये जहन में जहनदार सारे
सारे थे महताब से , जुगनू से बे-इंतिहा था मैं
संग कदमों से उसके जिस और ज़हां था मैं
इससे पहले कि आफ़ाक़ में ही कहां था मैं
- ईशांत-
बे-इंतिहा तो चाहा नहीं
पटरीयों-सी चाहतें हो, ताल्लुक़ें हो
कोई एक भी पीछे या आगे बड़े
सिलसिला फ़ना ही हो और हो
काश! ऐसा ही मरासिम रख पाते हम ।-
मेरे हाल पे तो हर कोई बात बना लेते हैं
मेरे चुप ही रह जाने से कोई शिकस्ता क्या होगा-
| माशूक़ा-मातृभूमि |
प्रेम का अंत हो जाता है
ख़त संभाले नहीं जाते
जीत-हार है नाम मात्र
माशूक़ा है तो प्रेम है, ख़त है ।।-
| जननी-मातृभूमि! |
विचार का अंत हो जाता है
हथियार संभाले नहीं जाते
सिर्फ जीतना है
जननी है तो विचार है, हथियार है ।।-
उसके पसंद में नए-नए ख़ाब हैं , यार हैं , बहार हैं
सब कुछ है ।
हमनें तो सदियों से गुलो-गुलाब संजोए रखा है
बेकार रखा है ।।-