हमें अपनों से खौफ़ है अजनबियों से क्या गिला करें
तंज़, नाउम्मीदी, बेज़ारी कभी तो हंस कर मिला करें-
हममें जो भी है बस हमारे जैसा है,
तब्दीली की कोई गुंजाइश नहीं है;
वज़ाहतें देते ... read more
ऐ क़श्मकश-ए-ज़िंदगी अब बस भी कर
मिरा आप मिट गया तुझे मनाते - मनाते-
ज़बान कहीं शमशीर न कर लेना
ज़ख़्म दिखाकर ताबीर कर लेना-
ज़िंदगी अब बहुत तड़पाने लगी है
मुझे लगता है उसे मेरी याद आने लगी है
मै समझता था बहुत दिल जू हूँ मैं
मुझे ठुकराकर वो कहीं और जाने लगी है
ख़ुद को यकसर तबाह कर लिया मैंने
इस कामयाबी पे अपनी वो इतराने लगी है
मुझे यकीं बहुत था अपने ख़्वाबों पर
आके ख़्वाबों में भी अब वो सताने लगी है
मैं वहम में था कि बहुत बा'हया थी वो
झटक कर दरीचे पे बाल सुखाने लगी है
क्या कहूँ बहुत गुमां था जीत जाने का
मुझे मुझमें ही रह कर वो हराने लगी है-
ज़िंदगी से अब मिरी कोई बात नहीं होती
मिलती है राह चलते मुलाकात नहीं होती
यक-ब-यक सहमा दिया करती थी जालिम
मिरे आसमां में कभी-कभी रात नहीं होती
इक दरख़्त सूखता ही जाता था आँगन में
इक उस पर ही अक्सर बरसात नहीं होती
मिरी बर्बादी पर बहुत इतराती है कम्बख़्त
मैं ज़िंदा हूँ फिर क्यूँ.. मुझे वफ़ात नहीं होती
क़त्ल कर बेगुनाह हो जाने का हुनर है यूँ
मुझे मात तो होती है मगर बिसात नहीं होती-
ज़िंदगी कब से यूँ करवटें बदल रही है
कोई आके ज़रा इसकी बेचैनी तो पूछे-
तस्बीह तिरे नाम की करता ही रहूँ क्या
तिरी याद में पल पल मरता ही रहूँ क्या
कोई है के बताये तुझे हश्र आशिक का
अंधेरों में मोहब्बत है गिरता ही रहूँ क्या
तू सब्र का मिरे अब इम्तहान और न ले
नज़्में तिरी ख़िद्मत में पढ़ता ही रहूँ क्या
अहद-ए-वफ़ा नहीं करनी तो न ही कर
इस शिकवे में तुझसे लड़ता ही रहूँ क्या
तू ख़ुश नहीं होती चल मानूस तो हो जा
मुज़िर-ए-जाँ ये आहें भरता ही रहूँ क्या
ख़ामोश बैठूँगा तिरे कूचे में अब मैं क्यूँ
यूँ तेरे रूसवा होने से डरता ही रहूँ क्या
बरपे तो हंगामा मुझे अब डर नहीं कोई
हो के हीर का राँझा फिरता ही रहूँ क्या-