महक़ रहा है कोई इत्र बनकर फ़िज़ाओं में,
साँसों की रफ़्तार का बढ़ना तो लाज़मी है।-
हममें जो भी है बस हमारे जैसा है,
तब्दीली की कोई गुंजाइश नहीं है;
वज़ाहतें देते ... read more
भ्रात-प्रेम-->
रामकथा (भाग-तृतीय)
"भरत मिलाप"
"बोले भरत सुनें हे! ज्येष्ठ!
कर्तव्य परम है निभाऊँगा
राम का प्यारा रहा सदैव ही
अयोध्या नरेश नहीं कहलाऊँगा"
-(सम्पूर्ण गान अनुशीर्षक में🙏)☟-
रात गुज़री है ग़ालिब को सुनते हमारी
ये क्यूं हुआ कि सुब्ह को बहुत खुश उठे हम
Rat guzri hai Ghalib ko sunte humari...
Ye kyun hua ki subh ko bahut khush uthe hum....-
हाय! दिन दुपहरी ये बड़ा सताती है
कमबख़्त रातों को ये नींद कहाँ जाती है
जो ख़ामोशियों की गूंज हैं हर तरफ़
धड़कनों की धुन बदबख़्त क्यूं सुनाती है
मुझे नींद नहीं आती है क्यूं नहीं आती है...
हज़ारों लोग हज़ार बातें लाख किस्से
आहिस्ता-आहिस्ता मुझे रोज़ सुनाती है
मैं दौड़ती रहती हूँ बंद आँखों के भीतर
मेरी मंज़िल मेरे सपने ये सब लिये जाती है
मुझे नींद नहीं आती है क्यूं नहीं आती है...
बादलों के पार पंछियों के देश उनके घर
चमकती हुई चाँदनी कुछ घरौंदे सजाती है
बिस्तर पर पड़ी ये सिलवट रूठकर मुझसे
कहीं कोने में रातों को मुझे छोड़ आती है
मुझे नींद नहीं आती है क्यूं नहीं आती है...-
नक़ाब हो जाती हैं मुस्कुराहटें रफ़्ता-रफ़्ता
अज़ाब हो जाती हैं मुस्कुराहटें रफ़्ता-रफ़्ता
छुपा रखती हैं मुज़्तरिब सी शख़्सियत मेरी
वहाब हो जाती हैं मुस्कुराहटें रफ़्ता-रफ़्ता-
कोशिश पूरी की ज़माने ने गिरा दे दरख़्त को
मगर ये भीतर से उगा है बहुत गहरी जड़ें हैं-
वक़्त आयेगा तो हर मोहरा चलेगा
घड़ी की सुईयां भी अपने वक़्त पर चलती हैं।-
गर्द-ए-सफ़र से न तू रूक...न मैं रूकूँ कभी
ख़ुदा-ए-थकन को न तू झुक...न मैं झुकूँ कभी
हौसलों की सोहबत में आ..मायूसियों को छोड़
सवार लहरों पे मुझे तू... तुझे मैं दिखूँ कभी-
बाज़ दफ़ा होते दिन के साथ हर पहर गुज़र जाता है
मैं सोचती हूँ मेरे तकिये तले ये सहर कौन लाता है
रहने दो रात, रहने दो स्याह हर तरफ़, बस रहने दो
बेतरतीब पुराना सा हर दिन यहाँ कौन छोड़ जाता है-
मोहब्बत के बाग में हम तुम ग़ुलाब हो जाएँ
ऐसे कि रश्क़ करने वालों पे अज़ाब हो जाएँ
बिन पिये झूमें तेरी चश्म-ए-नम में तर बतर
मेरे ये हाथ पैमाने तेरी आँखें शराब हो जाएँ
फिरता ही रहूँ दर-बदर मुझे मेरा घर न मिले
अच्छे लोगों के बीच हम तुम खराब हो जाएँ
इज़हार-ए-मोहब्बत का ग़ुलाब न बनें न सही
कब्रों पर महकें ऐसे कि मुर्दे शादाब हो जाएँ-