अंधेरा ही तो कायनात की हर तखलीक़ का हमराज है,,,
"इरशाद" इल्म की खोज़ में तो सारे दुखों की जड़ है....इर्शरू-
किसी का बचपन, किसी की जवानी मांगती है,
'इरशाद' ये ज़रूरतें भी, बहोत क़ुर्बानी मांगती है...-
तुझसे मिलने को तड़प रहा हूं ऐ-सितमगर,,,
देख तेजी से गुजर रहा है ये सितम्बर...इर्श रु-
"इरशाद" चाँद से ज्यादा ख़ूबसूरत है भूख़ में दो रोटियाँ,,,
कोई बच्चा जब मरेगा क्या करेगी चाँदनी...शाद-
तेरी रेहमतों पर है मुनहजिर,
मेरे हर अमल की क़ुबूलियत,
ना मुझे सलीक़ा-ऐ-इल्तिजा,
ना मुझे शुऊर-ऐ-नमाज़ है...इर्श-
"इरशाद" जिंदगी से बढ़कर था भूख का मसअला,,
परिंदा जाल पे यूँ ही नहीं उतर आया...इर्श-
"इरशाद" किसे मयस्सर है तमाम ख़्वाहिशों की ताबीर,
हर शख़्स अधूरे ख़्वाबों का जनाजा लिऐ फिरता है...इर्श-
दो वक़्त की रोटी कमाने में है मशगूल,
बेटे की पढ़ाई और बेटी की शादी की फ़िक्र में है मसरूफ,
अमीरजादों की गालियाँ-धुतकार सुनने को है मजबूर,
ये है मेरे डिजिटल इंडिया का ग़रीब मजदूर...इर्श
~मजदूर दिवस~-
'इरशाद' हमारी ईद बहुत मुख़तलिफ गुजरी,,,
हम नये कपड़ों में भी उदास रहे...इर्श-
"इरशाद" हम जिसके मुंतजिर थे उसी शख़्श के सिवा,
सारे जहाँ ने ईद मुबारक कहा हमसे...इर्श-