ᴋɪʀᴀɴ ʙᴀʟᴀ (ᴋirrᴜ)   (Writer' OYEEE CHUP...✍🏼)
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Joined 16 January 2025


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"यहां मेरा हक़ है मैं वहां ही जताती हूॅं "किरन"...!!
"बेवजह अपना गुस्सा किसी को नहीं दिखाती हूॅं...!!

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"इश्क की गलियों में घूमता है...!!
"यह आशिक लगता नया-नया है...!!

"सर चढ़कर भी तुम्हारे बोलेगा...!!
"यह इश्क जो तुम्हारा अभी नया_नया है...!!

"कभी पछताओगें अपने फैसले पर...!!
"अभी दीवानापन तेरा नया_नया है...!!

"किसी बेबस आशिक़ का दर्द देखना...!!
"तुम्हारा किस्सा तो अभी नया_नया है...!!

"वीरानों में घुमते है बन कर मलंग...!!
"तेरे इश्क़ का अभी खुदा नया_नया है...!!

"देखिए ले जाता तुम्हें कहां_कहां है...!!
"सफ़र_ए_इश्क जो अभी नया_नया है...!!

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बहुत कुछ लिखा है हमने भी तुम्हारे लिए
कभी फ़ुर्सत निकाल मिलना तुम्हें सब सुनाएंगे


हर शेर, हर ग़ज़ल, और इन "अश'आर से भी
कभी आना हमारी गली तुम्हें सब से मिलाएंगे


चंद "ख़त भी लिखे थे हमने कभी तुम्हारे लिए
क्यों नहीं भेजें कुछ ऐसे क़िस्से भी तुम्हें बताएंगे


यूं तो तुमसे मिलने की ख़ुशी हमें होती है बहुत
क्यों होते हैं हम नाराज़ यह कारण भी समझाएंगे


गुस्सा भी करेंगे और तुझे रूठे हुए को भी मनाएंगे
तुम मेरे हो यह ‌ हक़ तुम पर पूरा हम जताएंगे

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मैं जब भी बैठी आपको याद करती हूॅं
कभी मुस्कुरा देती हूॅं कभी आंखें भर लेती हूॅं
वह आंगन में बैठें रात को आपका किस्से
कहानियों को सुनाना उस गुज़रे हुए
वक़्त को मैं अक्सर याद कर‌ लेती हूॅं
दिन, महीने, साल में गुज़र गए है उन
बातों को याद कर मैं यादें ताज़ा कर लेती हूॅं
कभी मुस्कुरा देती हूॅं कभी आंखें भर लेती हूॅं
शक्ल ओ सूरत से मां जैसी हूॅं हाव भाव से
जब कोई कहता है यह आपने पापा जैसी है
तो मैं अक्सर मुस्कुरा देती और आंखें भर लेती हूॅं
वक़्त तो वक़्त के साथ गुज़र ही जाएगा आपकों
याद कर कुछ पल साथ आपका महसूस कर लेती हूॅं
जब कभी बैठी मैं आपको याद करती हूॅं
कभी मुस्कुरा देती हूॅं कभी ऑंखें भर लेती हूॅं

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सुबह की मेरी पहली सोच और
मेरी रात का आखरी ख्वाब तूं होता है

किसी असलियत से कम नही होता
जब तेरा ख्यालों में मुझे दीदार होता है

तेरी आंखों में खुद को देखना मत पूछो
यह कितना "खूबसूरत अहसास होता है

ज़िंदगी गुज़र जाएं एक साथ तेरे अगर
इससे ज़्यादा दुआओं का असर क्या होता है

मायूसी शाह जाती है मेरे चेहरे पर उस वक्त
तेरी आंखों में अश्क कोई मेरे कारण होता है

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शोर से भरी हुई हूॅं मैं,
फिर भी अब सन्नाटा चाहती हूॅं...!!

थक गई हूॅं सफ़र-ए-ज़िंदगी से,
फिर भी मैं और चलना चाहती हूॅं...!!

गमों में उलझी हुई हूॅं मैं,
फिर भी मुस्कुराना चाहती हूॅं...!!

मायूस होने पर कुछ पल,
मैं सुकून के गुज़ारना चाहती हूॅं...!!

बहुत कम ख्वाहिशों के साथ मैं,
जिन्दगी को मुकम्मल जीना चाहती हूॅं...!!

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उसके शहर जाता हूॅं मुलाक़ात मैं भी नहीं करता
जो खुद ना करें बात जबरदस्ती मैं भी नहीं करता

ना जाने‌ कौन‌ से गुनाहों की सज़ा है यह मेरे मौला
बिछड़ कर भी उससे खुद से मैं जुदा क्यों नहीं करता

रात गुजार देता हूॅं जागते सारी उसके ही ख्यालों में
सब को कहता हूॅं मैं अब उसका जिक्र नहीं करता

तोहमतें हज़ार है मेरे किरदार पर‌ चाहे कोई उससे कहें
भरी महफ़िल में उससे नाम को रुसवा मैं भी नहीं करता

वह ख़ुश हैं अगर अपनी ज़िंदगी में मेरे साथ के बिना
उससे कहें कोई उससे पाने की ज़िद्द मैं भी नहीं करता

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जब बिखर ही चुके हैं तेरे इश्क में...!!
अब सिमटने की कोशिश हम क्या करें...!!

जब मान ही चुके हैं तुझे हम अपना...!!
भरी महफ़िल तुम्हें रूसवा हम क्या करें...!!

दर्द को बना लेंगे हम खुद ही मरहम...!!
ज़ख्मों को सहलाने की कोशिश अब क्या करे..!!

बेवफ़ाई के दौर में हम उम्मीद भी क्या करें...!!
वोह छोड़ गई हमें महबूब के ताज का क्या करें.!!

ज़ख्म तो दर्द ही देंगे इन से उम्मीद क्या करें...!!
नासूर पर मरहम भी अब असर क्या करें...!!

वादों का अब हम "हिसाब क्या करें "किरन"...!!
जो मुक्कर गए जूबां से हम ऐतबार क्या करें...!!

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मेरे हाथों में हाथ होगा "किरन" जब तेरा...!!
इससे खूबसूरत नसीब क्या होगा फिर मेरा...!!

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मैं कब तक संभाल कर रखूं
यह जो टूटें बेजान है ख़्वाब मेरे

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी कुछ अरमान
अब मैं नहीं चाहता कुछ मुकम्मल हो ख़्वाब मेरे

गुज़र गया वक्त गुजर गए लम्हे
जब चाहते थे पूरे हो देखें हुए सब ख़्वाब मेरे

कब तक उठाकर रखूं कंधों पर लाश अपने
दफना दे तूं हूॅं कल को अपने कहते हैं ख़्वाब मेरे

नई मंज़िल नई उम्मीदें कुछ होगा अब पास मेरे
चलते है सफ़र पर मुलाकात होगी कहते हैं ख़्वाब मेरे

उम्मीद नहीं छोड़ते कभी भी "किरन"
बेचने निकलों मिलेंगे खरीददार कहते हैं ख़्वाब मेरे

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