हम अंधी दौड़ में इतने लिप्त
हो चुके हैं की अपने ही पाँवों
को कुचल के आगे निकल जाना
चाहते हैं वहाँ, जहाँ कोई
कभी नहीं पहुँचता।— % &-
ये हिन्द की सरज़मीं
जिस पर नाज़ है हमें,
एक तरफ खड़ा अडिग हिमालय
एक तरफ लहराता सागर-ए-हिन्द,
कहीं हैं रेत के विशाल मरुस्थल
तो कहीं हरियाली बिखेरते बागान,
किसी मठ में शांत बैठा है भिक्षु
कहीं मंदिरों में बजती हैं घंटियाँ,
गिरजे से उठती है कहीं प्रार्थना
कही गूँजती है अज़ानों कि आवाज़,
दीवाली में जलते हैं दीप यहाँ
ईद में मिलते हैं सब गले यहाँ,
बरसते हैं रंग जब होती है होली
कटती हैं फ़सल मनती है बैसाखी,
ये हिन्द की सरज़मीं
जिस पर नाज़ है हमें,— % &-
हज़ार बार बुझाएगा इसे तूफाँ
चिराग़ उम्मीद के जलाये रखना है,
कितनी भी मुश्किलें आएँ राह में
हौसले को अपने बनाये रखना है,-
शानों पे खेलती है
नागिन की तरह
करीब आ! तेरी
ज़ुल्फ़ मैं सवार दूँ,
आँखे लगती हैं
किसी झील जैसी
मुहब्बत की कश्ती
इनमें उतार दूँ,-
मैं क्या हूँ? कुछ भी तो नहीं......
सिवाय ज़मीन पर पड़ी उस खाक के,
जिसका ज़र्रा ज़र्रा आफ़ताब कि रौशनी का मोहताज है,
सिवाय उस बहते दरिया के जो,
कभी किसी रोज़ सागर में मिलने को बेताब है,
सिवाय उस अलमस्त फकीर के जिसके
पाँवों में काँटे और लबो पर खुदा से मिलन कि आस है,
सिवाय आसमां के उस तारे के जो
चमकने को महताब कि रोशनी का मोहताज है,
सिवाय उस हिना के जो खुद को मिटा के
बनती महबूब के हाथों की ज़ीनत-ओ-आब है,
सिवाय उस गुलाम के जिसका सर झुकता है
उसके आगे जो,सारे जहाँ का सरताज है,
मैं क्या हूँ?कुछ भी तो नहीं-
दिल ने इक चीज़ बड़ी बेसबह माँगी है
हुस्न-ए-मगरूर की फितरत से वफ़ा माँगी है,
मसलहत है, तवज्जो है या कि साजिश है
एक दुश्मन ने मेरे हक़ में दुआ माँगी है,
#नामालूम-
खुले पड़े हैं मेरी जिंदगी के सारे वरक़
न जाने कब कोई आँधी उड़ा के ले जाए,
किसी का दर्द मैं कहाँ तक अपने पास रखूँ
ये जिसका हो निशानी बता के ले जाए,
#नामालूम-
क्या मिलिए ऐसे लोगों से
जिनकी फितरत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए
असली सूरत छुपी रहे,
क्या उनके दामन से लिपटें
क्या उनका अरमान करें
जिनकी आधी नीयत उभरे
आधी नीयत छुपी रहे,
#नामालूम-
कितना सुकूँ है कैसा आराम है
ज़िक्र में डूबे सुबह-ओ-शाम है,
लबों पर मेरे आया जो जाम है
वो फ़क़त एक तेरा ही नाम है,-
हाँ, दुनिया में मैं एक
शराबी की तरह बदनाम था,
पर मेरे लबों पर जो जाम था
वो एक तेरा नाम था-