हां शायद ,,,,,,जब सच सामने आने लगता है,,,,
कुछ लम्हे गुजर तो जाते हैं लेकिन जिंदगी की अनमोल निशानियां दें जाते ,,,,
यादें हैं जो फिर से कुरेदती है और वक्त है की मरहम लगाता है ,,,
वक्त है वो वास्तविकता की सफर है जो यही कहता चलता रहा शायद जो होगा वो अच्छा था अच्छा है और अच्छा होगा ,,,,,
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कभी कभी उसकी नादानियां याद आती है
वो एक शख्स जींदा था कहानियां याद आती है
इस उम्र तक आते आते गुजार दी उम्र सारी
अभी तो बस बचपना है वो जवानियां याद आती है
जिन दरख्तों के साथ बड़े हुए खेले भी जहां जहां
अब टुटते उन दरख्तों की वो टहनियां याद आती है
जरूरी नहीं कमबख्त जज्बाती दिल मोहब्बत में टुटे
टुटे है जब वक्त से चोटों की निशानियां याद आती है
To be countinue.....
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बेगैरत हुए हम ये हमारी अपनी समझ थी ,,,,
इरादे जानने हो अपनों के तो खुद बदनाम होना गलत नहीं,,,,,
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जिनके लबों की हंसी थे जो ख्याल
ख़ुद पर अफसोस भी वही मेहरबां हुए
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है पास में मेरे जो अब उनका मरहला क्या है
है पास में मेरे वो तो उनका मसअ्ला क्या है
कुरेद कर मिट्टी जो देखते है की जख्म मेरे
ये चारासाजों से पुछो इनका मनसबा क्या है
मेरी कस्ती को मैंने उतारा है उस समंदर में
मुझसे ना राबता हुआ तो वो ज़लज़ला क्या है
है रवायत तो निभायेगें ज़ालिम जान के सदके
है ये अपनी सफागत तो उसका दबदबा क्या है
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आप जो मर रहे हो कोई मरता नहीं यहां आदमी के खातिर
इक भाई ने तो अभी तक घर बनाया ही नहीं है
इक भाई ने तरकीबें बना ली घर ढहाने के खातिर
अभी इसका दबदबा है अभी इसका है बोलबाला
हर रोज दल बदलता इंसान अपनी स्वार्थ के खातिर
गलतियां करके तमाशा बनाता है जो चालबाज आदमी
बचाने आयेगा लाजिमी जमाना उस आदमी के खातिर
साथ रहकर जो दोस्ती भूले खंजर चलाये दोस्ती पर
फिर कैसे मरेगा hansu उस बेगैरत आदमी के खातिर
हमको सीखा दे ऐ खुदाया जिंदगी जीने के हसरतें
नफ़रत , झगड़ा , रंजिशें अच्छी नहीं आदमी के खातिर
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मैं तुमसे इश्क की हदें पार कैसे करूं
चलो इक बार सही बार बार कैसे करूं
सामने बैठे की हजार बातें हो नज़रों की
तुम्हारे लबों के जैसा इंतजाम कैसे करूं
तुम्हारे हाथ में हाथ और ख्यालों की बारात
8कप चाय,दो सिगरेट बता और इंतजार कैसे करूं
मेरे अकेले की ही ख्वाहिश नहीं ये मुलाकात
मेरे हाथ मत छोड़ना मैं इसका इंतकाम कैसे करूं
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बड़े ही शाही घर की बेटी ने कहा इसको देखो ये कलमुई क्या लाई थी ,,
अरे मां के गहने ,अपनी जमीन बेच एक बाप ने जिसकी डोली सजाई थी,,
ये समाज तो बस हर नज़र से अंधा ,कानों से बहरा ही तो था ,,
एक औरत का दर्द क्या जानेगा कोई जब एक औरत ना जान पाई थी ,,
बिछड़कर इक घर की जलती बाती किसी घर के चिराग को रोशन करेगी ,
एक चांद से मुखड़े को जलाकर क्या मिला जिसमें बाप की जान समाई थी,,
ये बंद करो समाज की रिवाजों के काले धंधे इन अक्षरों को पढ़ने वालों,,
नारी तो इक कल्पवृक्ष है दुनिया में hansu जिससे ये दुनिया सजाई थी,,
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घर आते हैं तो जिंदगी के ख्वाब अधुरे रह जाते है
निकले घर बाहर कमाने तो मां बहुत बैचेन रहती है
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