हो जय पराजय से अछुत तुम, कर्तव्य के गंतव्य से विभूत तुम। ना हो ये संघर्षों से विचलित तुम, सामर्थ्य है तुममें, क्यों ऐसे रिक्त तुम। पथ पे चलते रहो, अणु जैसे सुप्त तुम।
उसका हमसे क्या बिछड़ना इतना जरुरी था, पता नहीं क्या सच में कोई मजबूरी थी। ये दिलों की डोर क्यों अधूरी थी, पर फाँसले इतने थे कि तन्हाई बगैर तेरे पूरी थी।
शहर के गली-नुक्कड़ पर रास्ते तो बहुत हैं, पर बताए हुए रास्ते पर कोई चलना नहीं चाहता। शहरों ने बहुत तरक्की की, पर गाँव को भूल गए, नोटों पे तस्वीर छापी, पर ईमान भूल गए। पुतलों को हार खूब पहनाए, पर इंसानियत भूल गए।