साधु अखण्ड़ कर्म है
साधु है निरपेक्ष भाव।
धर्म की रक्षा साधु करे
वह ना कोई व्यक्ति है केवल एक स्वभाव।।१।।
साधु मानव से दूर रहे
रखे मुक्ति की चाह।
साधुओं के संग जीवन बने
दिखलाए धर्म की राह।।२।।
साधु ना अब सुरक्षित रहा
ऐसा बना ये देश।
साधुओं की हत्या कर
मानव बना है मेष।।३।।
भस्म लगाएं धुनी रमाए
निजकार्यों में मग्न रहा ये।
छेड़ दिए जब इन्हिको तुम
देखलो अब,
कैसा दिखे साधु खड्ग उठाएं।।४।।
हर युग इसका साक्षी है
जब हुआँ साधुओं का अपमान।
जलथल अंबर ठिठुऱ उठा
करने चला साधु सम्मान।।५।।
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