Out of Office Till 23rd August
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!! दीये कि जुबानी आज की आधुनिकता के लिए !!
यूं नही की ये सफर जिंदगी भर चलेगा,
ये सिलसिला बस चंद रोज़ का है ।
मैं आऊंगा दलहली पे कल से तुम्हारी,
तुम्हारा तो इस घर आना जाना हर रोज का है।
मैं तुमसे बस थोड़ी देर बाद जलूंगा,
तुम्हारा द्वंद बारिश की बूंदों से हैं मेरी हर ओस से है।
तुम जगमगाते हो टिमटिमा के हर रंग के साथ,
मेरी बिसात बस बाती और तेल की कोख से है l
सबको नहीं मिलता मौका रंग बदलने का,
अपना तो तिलिस्म हवाओं की नोक झोंक से है।
मेरी तादात मालिक की हैसियत नहीं बताती,
मिट्टी से लगाव और परंपराओं के बोझ से है।
मैं ना कहूंगा कि मुझे ही जलाओ शान से,
आपकी लड़ाई रावण और राम की सोच से है।
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अब नहीं भरोसा हमको उसकी आंखों के पानी पर,
जो बेवक्त निकल जाता है हर वक़्त झूठी अदाकारी पर l
अब हम भी सज के खड़े होते हैं खुद ही के समाने,
आईना भी मुस्कराता है अब हमारी खुद्दारी पर l
ना अब रोता हूँ और ना हसने की कोशिश में हूँ,
जबसे से बैठे देखा है ठगी को दुनियादारी पर l
अब तो ईनाम देती है दुनिया गद्दारी दिल से करने पर,
सर कलम कर देती हैं बस थोड़ी सी ईमानदारी पर l
वो हाँ में हाँ जो मिलाए जा रहा है जो तुम्हारी हर बात पे,
बात मानो मेरी पानी फ़ेर देगा वो तुम्हारी हर तैयारी पर l
हाथ हैं तो हाथ आगे करो,पैरों को अब तूफानी करो,
कब तक और कहां तक जीयोगे दुसरों की मेहरबानी पर l
मैं तो ठीक हुँ भाला जो मेरे अब बाल सफेद हो रहे "साखी"
मुझे तरस आता है इन बेचारे नौजवानों की जवानी पर l
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कुछ इस जहां में सिर्फ काम के लिए आए
जो बच गए वो अकेले सारा आराम ले गए l
जलते रहे हमेशा तेल और बाती गले लग कर,
रोशनी का सारा नाम मिट्टी के भाड़ ले गए l
लड़े और फिर मर भी गए सारे जवान जंग मे,
सारे तमके नेता अपने नाम कर गए l
भरते है सब भले लोग सिर्फ़ टैक्स यहां,
सारा विकास कुछ भगोड़े अपने नाम कर गएl
मजदूर तो है ही यहाँ सिर्फ़ हमाली के लिए,
महल का सारा सुख बाबू साहब ले गए l
साखी को फक्र है अपनी फकीरी पर,
हम अपने हिस्से का दुनिया को दान कर गए l
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यू तो हर रिश्ता कभी ना कभी याद आता हैं
कुछ खुशी में कुछ गम में,
कुछ तड़कती धूप में कुछ मीठी सर्द में !!
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रावण को मारना कहाँ जायज है कोई राम हमे भी बतलाये,
आदमी झुम रहा है ऐक नन्हें दीये को जलते देख !!-
"दीये कि जुबानी"
मैं बस एक दीया हूँ मुझे बस दीया रहने दो
आग सीने पे रख कर ना जाने कितनी देर चल पाऊंगा ।
बागवत देख रखी है हवाओ की आंखों मे मैंने (2)
ना जाने अब कितनी देर ओर ठीक से जल पाउँगा ।
मेरे तन की माटी पक सी गयी है जलते हुए,
ना जाने इस मिलावट के तेल से कब खुद ब खुद ढह जाऊंगा ।
मेरा काम है बस जलना, तो बस मूझे जलाते रहो,
आग ना लगी मेरे तन को तो मैं बेबस ही मर जाऊँगा ।
मुझे मालूम है तुम्हें जश्न मनाना है दुनियावालों,
चलो तुम्हारी खातिर कुछ और देर चौखट पे रह जाऊंगा ।
मैं अपना अंधेरा अपने ही साथ लिये चलता हूँ,
मैं आदमी थोड़ी हो जो तरक्की में खुद को भूल जाऊंगा ।
मुझे निकाल फेंकोगे अपनी दहलीज से कल सवेरे ही "साखी",
मैं शहादत के वास्ते खुद ही खुद की मिट्टी में घुल जाऊंगा ।
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ऐ जिंदगी कुछ देर ठहर - आराम तो कर,
जो शिकवे है मुझसे उन्हे सरे आम तो कर l
बात हमसे नहीं तो खुद से तो कुछ कर,
बोलने में झिझक है तो कोई कलाम तो कर l
तूझे यक़ीन हो चुका है अब मेरी नाकामी पे ,
अब सीखना बंद कर और हमे बर्बाद तो कर।
परेशान ना होना हम ढिठो से उलझते उलझते,
तू भी थक सी गयी है ऐसा फरमान तो कर ।
तू जानती नहीं कि इश्क़ में कितना रम्ज़ है,
मरने से पहले ज्यादा नहीं एक बार तो कर ।
जीने की चाह कम हो ना जाये हर सुबह "साखी",
शाम को कोई एक जाम का इंतजाम तो कर ।
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बातें बंद है तकरार नहीं,
चेहरा वही बस अब वो आकार नहीं ।
पाने की ख्वाईश है हर पल उसे,
सपना बस सपना अब वो अधिकार नहीं ।
आँखों से बाते कहाँ हो पाती है अब,
काजल हैं आसुंओं के अब आसार नहीं ।
देखते है तस्वीर ना जाने क्यूं हर रोज,
आशिक़ हैं कोइ बेकार नहीं।
मुद्दा नया है पर सरकार नहीं,
चुनाव कल और कोई प्रचार नही ।
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वो ना जाने अब किसकी बोली बोल जाएगा,
मैंने जबां खोली तो कोई और एक घर ढह जाएगा l
वो मुख़ालफ़त तो नहीं करता कभी बादलों से मेरी,
मिट्टी का मकान तो पहली बरसात में ही बह जाएगा ।
शहर की धूप मे रंग निखारा हैं उसका पहले से ज़्यादा,
मेरी सावली सी छाव देख क्या फिर वो लिपट जायेगा ।
कई रास्ते बने है उसके दर पे दस्तक देने के लिये ,
मुक़ाम पे जो पहुँचा तो उसीका पैर कट जायेगा ।
आसमाँ कहाँ अब उसके लिये लाना होगा मूझे,
अब्र हैं अपनी मर्जी का जहां चाहें वहीं बरस जाएगा ।
मैं ना कहता था तुमसे हर रोज़ "साखी"
झलक जो दिखी तुम्हारी फिर से वो तरस जाएगा ।-