बहुत लंबा हुआ अरसा
की ये बादल नही बरसा
कही चटकी नही कलियां
कोई उपवन नहीं सरसा
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पैंतरा ऐसा कोई ,चुना भी नहीं।
कुछ कहा भी नही, कुछ सुना भी नहीं।।
तक़रीबन वाक़िफ़ थे अंजाम से हम
तो कोई ऐसा ख़्वाब ,हमने बुना भी नहीं।।
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ख़ामोशियाँ है सवालों पर,बात ये मुनासिफ भी नहीं
अजीब मंजर है की ये मेरे मुताबिक़ भी नहीं
दूर सहरा, तक को है मेरी भटकन का पता
पास दरिया है जो मेरी प्यास से वाक़िफ़ भी नहीं।।
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उनके ईमान के क़ायदे बदल जाते है
झूठ की ताईद से खबरों के मायने बदल जाते है।।
हक़ीक़त से महरूम रह जाता है जमाना सारा
जब सच दिखाने वाले आईने बदल जाते है।।-
रात इस कदर मुझपर भारी पड़ने लगती है
जैसे निहत्थी जान पर आरी चलने लगती है।।
जैसे तैसे करके सुधरने लगते है हालात
जात, मजहब,फिर यही बीमारी चलने लगती है
चुनाव आने को है कैसे भड़काने है दंगे
सियासत में अच्छे से इसकी तैयारी चलने लगती है
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अक़्सर सोचता हूँ कि ,क्या कमी रह जाती है
चीख़ते-चिल्लाते है सब ,आंखों में नमी रह जाती है
खून उबलकर ठंडा पड़ जाता है हमारा
बर्फ पिघलने को होती है और जमी रह जाती है।।-
चल रही है ये तलाश, जिंदगी के लिए
जल रही है ये प्यास, जिंदगी के लिए।।
क्या-क्या करना पड़ता है चलाने को इसे
जिस्म बेच कर चलती है साँस, जिंदगी के लिए
सहूलियत से बटते है लोग यहाँ
कुछ तो आम और कुछ ख़ास, जिंदगी के लिए।।
है झमेले के मेले और अकेले भी
फिर भी आएगा ये सब रास, जिंदगी के लिए
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कलियों से धोखा हुआ है, इस करार में
पतझड़ी मौसम आया है सावनी बहार में
इस मलबे में जो छन रही है ख़ाक अभी
खिलेगा यही एक चमन, इसी गुबार में
- Himanshu
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रातों की रात और सूरज को ढलते हुए देखना।
ज़ख्म भरा जाना, फिर उसको उभरते हुए देखना ।।
कमाल है उन मायूसी भरी शामो का,
दीया बुझा दिया जाना और खुद को जलते हुए देखना।
चंद फैसलों पर कितना कमजोर साबित होते है हम
बर्फ बन जाना और उसी को पिघलते हुए देखना।।
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पलकों ने इस बोझ को कैसे अभी तक थाम रखा है,
ग़नीमत है, मैंने अब तक खुद को बाँध रखा है।।
अहले सियासत तेरे इस झूठे ईमान के सदके
हमारे हक़ को जिसने अपनी जूती से बांध रखा है
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